Monday, May 28, 2018

दण्डधारण का महत्व.... . . चारों वर्ण तथा आश्रमों के लिए दण्डधारण की अनिवार्यता है। दण्डधारण के विना आश्रम सिद्धि नहीं होती। गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थो यतिस्तथा। चत्वारश्चाश्रमा: तेषां पञ्चमो नोपपद्यते॥ सर्वेषामाश्रमाणां च विहितं दण्डधारणम्। न दण्डेन विना कश्चिदाश्रमीति निगद्यते॥ (आदित्य पुराण / १७ / ६-७) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास, ये चार ही आश्रम हैं। पांचवें आश्रम का वर्णन नहीं है। सभी आश्रमों के लिए दण्डधारण विहित है। दण्ड के बिना कोई भी आश्रम नहीं बताया गया है। गृहस्थ हो या यति, दण्ड से पृथक् न रहे। दण्ड नियमन का संकेत करता है। वशिष्ठ आदि गृहस्थ होकर भी अपने आश्रम के अनुसार दण्ड धारण करते थे। दण्ड धारण का अर्थ केवल दण्डी स्वामी बनना नहीं होता। ब्रह्मचारी का दण्ड अलग होता है, गृहस्थ का अलग, वानप्रस्थ का अलग और संन्यासी का अलग। वर्तमान में केवल दण्ड का भाव संन्यासकेंद्रित हो गया है। शूद्रादि के लिए दण्डधारण नहीं है। परन्तु विकल्प से वह द्वारपाल अथवा कृषक आदि की भांति अमन्त्रक बांस का दण्ड रख सकता है। हमने ऊपर आदित्य पुराण का प्रमाण दिया है। मुखजानामयं धर्मो वैष्णवं लिङ्गधारणम् । बाहुजातोरुजातानां त्रि-दण्डं न विधीयते॥ इति निषेध: स्मृतिवाक्येषु पुराणेष्वपि (त्रिदण्डविषयत्व-दर्शनाच्च कुत्रचिद् ब्राह्मणपदस्योपलक्षणमाचक्षाणाः केचित्।) मुख से उत्पन्न (ब्राह्मण) के लिए वैष्णव अथवा पाशुपत मत से दंडयुक्त संन्यास का वर्णन है लेकिन बाहु तथा जानु आदि से उत्पन्न (क्षत्रिय - वैश्यादि) के लिए कहीं भी त्रिदण्ड धारण संन्यास का विधान नहीं है, ऐसा निषेध स्मृतिवाक्य तथा पुराणादि में प्राप्त होता है। दण्डग्रहणादिरूपे विविदिषाख्यसंन्यासे दशविधब्राह्मणानामेवाधिकारः। कलौ संन्यासनिषेधस्त्रिदण्डीपरः। संन्यासदण्डधारण के निमित्त पञ्चगौड़द्रविड़ आदि ब्राह्मणों का ही अधिकार है। दृढ़ वैराग्य के अभाव के कारण कलियुग में त्रिदण्ड धारण का बहुधा निषेध ही है। जितेन्द्रियता के अभाव से ग्रस्त लोग भी संन्यास धारण कर के धर्मद्रोहियों का पोषण करेंगे, इसीलिए इसका कीलन किया गया है। दण्डधारण का भाव सर्वत्र त्रिदण्ड धारण नहीं होता। अपने अपने वर्ण के अनुसार विहित आश्रमों को सिद्धि हेतु तादृक् दण्ड धारण करे। चत्वारआश्रमाश्चैव ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिताः । गार्हस्थ्यं ब्रह्मचर्य्यञ्च वानप्रस्थं तु भिक्षुकम् । क्षत्रिये चापि कथिताआश्रमास्त्रयएव हि । ब्रह्मचर्य्यञ्च गार्हस्थ्यमाश्रमद्वितयंविशः । गार्हस्थ्यमुचितं त्वेकं शूद्रस्य क्षणमावहेत् । चत्वारो ब्राह्मणस्योक्ता आश्रमाः श्रुतिनोदिताः । क्षत्रियस्य त्रयः प्रोक्ता द्वावेकोवैश्यशूद्रयोः॥ ( वर्णक्रमेण चतुराश्रम्यादयः इति ) ब्राह्मण के लिए चार, क्षत्रिय के लिए तीन, वैश्यवर्ण के लिए दो तथा शूद्र के लिए एक ही आश्रम का विधान है। ऐसा वामन, कूर्म आदि पुराणोक्त वाक्य हैं। सभी आश्रमों में दण्ड की उपयोगिता शरणागत रक्षा, आत्मनियमन और विधर्मियों पर शासन हेतु बताई गई है। ब्रह्मचारी का शत्रु प्रमाद है। गृहस्थ का शत्रु स्तेन है। वानप्रस्थ का शत्रु क्रोध है। संन्यासी का शत्रु आसक्ति है। प्रमाद, स्तेन, क्रोध तथा आसक्ति से रक्षा हेतु चारों आश्रमों में दण्ड धारण का विधान है। विद्या दिनं प्रकाशत्वादविद्या रात्रिरुच्यते। विद्याभ्यासे प्रमादो यः स दिवास्वाप उच्यते॥ प्रकाशित करने से विद्या दिन के समान है तथा इसके विपरीत अविद्या रात्रि के समान है। विद्याभ्यास के काल में ब्रह्मचारी के लिए प्रमाद करना दिवास्वप्न के समान व्यर्थ होता है। ततो दण्डं समादध्याद्वटु: स्वशिरसोन्नतम्। . . एवं क्रमेण सर्वत्र तत्तज्जाति विशेषतः॥ (विश्वकर्मा पुराण) यज्ञोपवीत के बाद बटुक को सिर के बराबर ऊंचा दण्ड ग्रहण करवाना चाहिए। सभी जाति वालों को अपने लिए यथोचित (सुवर्ण, रजत, सीस, ताम्र, लौह, काष्ठ अथवा अभाव में पालाश: सर्वजातिषु के अनुसार पलाश का) दण्ड धारण करना चाहिए। इसके बाद समावर्तन प्रकरण से गृहस्थाश्रम प्रवेश के निमित्त कर्तव्यों का निरूपण करते हुए कालहस्ति मुनि ने राजा सुव्रत को बताया है :- ततः शिरसि चोष्णीषं धृत्वा दण्डम् च पादुके॥ संस्कृत व्यक्ति को नवीन पगड़ी तथा दण्ड धारण कराएं। गृहस्थ को परद्रव्यहरण से बचने का भी आदेश दिया गया है। चौर्येण वा बलेनापि परस्वहरणं च यत्। स्तेयमित्युच्यते सद्भिरस्तेयं तस्य वर्जनम्॥ (आदित्य पुराण) चोरी से अथवा बलपूर्वक दूसरे के स्वत्व का हरण करने की ही स्तेय संज्ञा है। सज्जनों को इस स्तेय नामक दोष से बचना चाहिए। दिव्यास्त्र सम्बन्धी साधनों में ब्रह्मदण्ड की व्याख्या करते हुए आचार्य वशिष्ठ ने इसके धारण की महत्ता का प्रतिपादन किया है। शत्रु से रक्षा, ब्रह्मतेज के स्थापन एवं धर्म प्रवर्धन हेतु ब्रह्मदण्ड धारण करे। वशिष्ठ स्वयं भी गृहस्थ थे और आश्रमानुसार दण्डी भी। ग्राह्या: स्वगृह्यविषयग्रामधर्मा विवाहके। छत्रोष्णीषोपानहादियुग्दण्डी गमने द्विजः। (दत्तात्रेय पुराणे गालवर्षिसुतेन गृहस्थधर्मवर्णनम्) यदा मनसि वैराग्यं जायते सर्ववस्तुषु। तदा च संन्यसेद्विद्वानन्यथा पतितो भवेत्॥ (आदित्य पुराण) संन्यास दण्ड के प्रति भी जब आसक्ति का अभाव हो जाता है, तब वह अवधूत हंसादि वृत्ति धारण कर लेता है। न दंडं न शिखां नाच्छादनं चरति स परमहंस:। संन्यासियों के लिंगसंन्यास, दण्डसंन्यास आदि प्रसिद्ध ही हैं। कलिकाल में अपने अपने जाति, वर्ण तथा सम्प्रदायों की मर्यादाओं का अतिक्रमण करके स्वेच्छाचार से नैमित्तिक चिह्नों का प्रवर्तन हो जाएगा। प्रमादिनो बहिश्चित्ता: पिशुना: कलहोत्सुका:। संन्यासिनोऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिताशयाः॥ कलियुग के प्रभाव से बहुतायत संन्यासी आलसी, मोहासक्त, चुगलखोर तथा झगड़ालू हो जाएंगे। मतान्तर से नक्षत्र चिह्न, राशि चिह्न, सम्प्रदाय चिह्न, इष्ट चिह्न अथवा आजीविका चिह्न के निमित्त वलय, दण्ड, तिलक, मेखला आदि के धारण का भी विधान है। साहसिक एवं कूटकार्यों के लिए नीतिशास्त्र में सांकेतिक दण्ड भी उल्लिखित हैं। चाण्डाल आदि के लौहदण्ड, वंशदण्ड तथा ब्राह्मणों के ब्रह्मदण्ड आदि प्रसिद्ध हैं। . . श्रीभागवतानंद गुरु

दण्डधारण का महत्व....
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चारों वर्ण तथा आश्रमों के लिए दण्डधारण की अनिवार्यता है। दण्डधारण के विना आश्रम सिद्धि नहीं होती।
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थो यतिस्तथा।
चत्वारश्चाश्रमा: तेषां पञ्चमो नोपपद्यते॥
सर्वेषामाश्रमाणां च विहितं दण्डधारणम्।
न दण्डेन विना कश्चिदाश्रमीति निगद्यते॥
(आदित्य पुराण / १७ / ६-७)
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास, ये चार ही आश्रम हैं। पांचवें आश्रम का वर्णन नहीं है। सभी आश्रमों के लिए दण्डधारण विहित है। दण्ड के बिना कोई भी आश्रम नहीं बताया गया है।
गृहस्थ हो या यति, दण्ड से पृथक् न रहे। दण्ड नियमन का संकेत करता है। वशिष्ठ आदि गृहस्थ होकर भी अपने आश्रम के अनुसार दण्ड धारण करते थे।
दण्ड धारण का अर्थ केवल दण्डी स्वामी बनना नहीं होता। ब्रह्मचारी का दण्ड अलग होता है, गृहस्थ का अलग, वानप्रस्थ का अलग और संन्यासी का अलग। वर्तमान में केवल दण्ड का भाव संन्यासकेंद्रित हो गया है। शूद्रादि के लिए दण्डधारण नहीं है। परन्तु विकल्प से वह द्वारपाल अथवा कृषक आदि की भांति अमन्त्रक बांस का दण्ड रख सकता है। हमने ऊपर आदित्य पुराण का प्रमाण दिया है।
मुखजानामयं धर्मो वैष्णवं लिङ्गधारणम् ।
बाहुजातोरुजातानां त्रि-दण्डं न विधीयते॥
इति निषेध: स्मृतिवाक्येषु पुराणेष्वपि
(त्रिदण्डविषयत्व-दर्शनाच्च कुत्रचिद् ब्राह्मणपदस्योपलक्षणमाचक्षाणाः केचित्।)
मुख से उत्पन्न (ब्राह्मण) के लिए वैष्णव अथवा पाशुपत मत से दंडयुक्त संन्यास का वर्णन है लेकिन बाहु तथा जानु आदि से उत्पन्न (क्षत्रिय - वैश्यादि) के लिए कहीं भी त्रिदण्ड धारण संन्यास का विधान नहीं है, ऐसा निषेध स्मृतिवाक्य तथा पुराणादि में प्राप्त होता है।
दण्डग्रहणादिरूपे विविदिषाख्यसंन्यासे दशविधब्राह्मणानामेवाधिकारः। कलौ संन्यासनिषेधस्त्रिदण्डीपरः।
संन्यासदण्डधारण के निमित्त पञ्चगौड़द्रविड़ आदि ब्राह्मणों का ही अधिकार है। दृढ़ वैराग्य के अभाव के कारण कलियुग में त्रिदण्ड धारण का बहुधा निषेध ही है। जितेन्द्रियता के अभाव से ग्रस्त लोग भी संन्यास धारण कर के धर्मद्रोहियों का पोषण करेंगे, इसीलिए इसका कीलन किया गया है।
दण्डधारण का भाव सर्वत्र त्रिदण्ड धारण नहीं होता। अपने अपने वर्ण के अनुसार विहित आश्रमों को सिद्धि हेतु तादृक् दण्ड धारण करे।
चत्वारआश्रमाश्चैव ब्राह्मणस्य प्रकीर्त्तिताः ।
गार्हस्थ्यं ब्रह्मचर्य्यञ्च वानप्रस्थं तु भिक्षुकम् ।
क्षत्रिये चापि कथिताआश्रमास्त्रयएव हि ।
ब्रह्मचर्य्यञ्च गार्हस्थ्यमाश्रमद्वितयंविशः ।
गार्हस्थ्यमुचितं त्वेकं शूद्रस्य क्षणमावहेत् ।
चत्वारो ब्राह्मणस्योक्ता आश्रमाः श्रुतिनोदिताः ।
क्षत्रियस्य त्रयः प्रोक्ता द्वावेकोवैश्यशूद्रयोः॥
( वर्णक्रमेण चतुराश्रम्यादयः इति )
ब्राह्मण के लिए चार, क्षत्रिय के लिए तीन, वैश्यवर्ण के लिए दो तथा शूद्र के लिए एक ही आश्रम का विधान है। ऐसा वामन, कूर्म आदि पुराणोक्त वाक्य हैं।
सभी आश्रमों में दण्ड की उपयोगिता शरणागत रक्षा, आत्मनियमन और विधर्मियों पर शासन हेतु बताई गई है।
ब्रह्मचारी का शत्रु प्रमाद है। गृहस्थ का शत्रु स्तेन है। वानप्रस्थ का शत्रु क्रोध है। संन्यासी का शत्रु आसक्ति है। प्रमाद, स्तेन, क्रोध तथा आसक्ति से रक्षा हेतु चारों आश्रमों में दण्ड धारण का विधान है।
विद्या दिनं प्रकाशत्वादविद्या रात्रिरुच्यते।
विद्याभ्यासे प्रमादो यः स दिवास्वाप उच्यते॥
प्रकाशित करने से विद्या दिन के समान है तथा इसके विपरीत अविद्या रात्रि के समान है। विद्याभ्यास के काल में ब्रह्मचारी के लिए प्रमाद करना दिवास्वप्न के समान व्यर्थ होता है।
ततो दण्डं समादध्याद्वटु: स्वशिरसोन्नतम्।
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एवं क्रमेण सर्वत्र तत्तज्जाति विशेषतः॥
(विश्वकर्मा पुराण)
यज्ञोपवीत के बाद बटुक को सिर के बराबर ऊंचा दण्ड ग्रहण करवाना चाहिए। सभी जाति वालों को अपने लिए यथोचित (सुवर्ण, रजत, सीस, ताम्र, लौह, काष्ठ अथवा अभाव में पालाश: सर्वजातिषु के अनुसार पलाश का) दण्ड धारण करना चाहिए। इसके बाद समावर्तन प्रकरण से गृहस्थाश्रम प्रवेश के निमित्त कर्तव्यों का निरूपण करते हुए कालहस्ति मुनि ने राजा सुव्रत को बताया है :-
ततः शिरसि चोष्णीषं धृत्वा दण्डम् च पादुके॥
संस्कृत व्यक्ति को नवीन पगड़ी तथा दण्ड धारण कराएं।
गृहस्थ को परद्रव्यहरण से बचने का भी आदेश दिया गया है।
चौर्येण वा बलेनापि परस्वहरणं च यत्।
स्तेयमित्युच्यते सद्भिरस्तेयं तस्य वर्जनम्॥ (आदित्य पुराण)
चोरी से अथवा बलपूर्वक दूसरे के स्वत्व का हरण करने की ही स्तेय संज्ञा है। सज्जनों को इस स्तेय नामक दोष से बचना चाहिए।
दिव्यास्त्र सम्बन्धी साधनों में ब्रह्मदण्ड की व्याख्या करते हुए आचार्य वशिष्ठ ने इसके धारण की महत्ता का प्रतिपादन किया है। शत्रु से रक्षा, ब्रह्मतेज के स्थापन एवं धर्म प्रवर्धन हेतु ब्रह्मदण्ड धारण करे। वशिष्ठ स्वयं भी गृहस्थ थे और आश्रमानुसार दण्डी भी।
ग्राह्या: स्वगृह्यविषयग्रामधर्मा विवाहके।
छत्रोष्णीषोपानहादियुग्दण्डी गमने द्विजः।
(दत्तात्रेय पुराणे गालवर्षिसुतेन गृहस्थधर्मवर्णनम्)
यदा मनसि वैराग्यं जायते सर्ववस्तुषु।
तदा च संन्यसेद्विद्वानन्यथा पतितो भवेत्॥ (आदित्य पुराण)
संन्यास दण्ड के प्रति भी जब आसक्ति का अभाव हो जाता है, तब वह अवधूत हंसादि वृत्ति धारण कर लेता है।
न दंडं न शिखां नाच्छादनं चरति स परमहंस:। संन्यासियों के लिंगसंन्यास, दण्डसंन्यास आदि प्रसिद्ध ही हैं।
कलिकाल में अपने अपने जाति, वर्ण तथा सम्प्रदायों की मर्यादाओं का अतिक्रमण करके स्वेच्छाचार से नैमित्तिक चिह्नों का प्रवर्तन हो जाएगा।
प्रमादिनो बहिश्चित्ता: पिशुना: कलहोत्सुका:।
संन्यासिनोऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिताशयाः॥
कलियुग के प्रभाव से बहुतायत संन्यासी आलसी, मोहासक्त, चुगलखोर तथा झगड़ालू हो जाएंगे।
मतान्तर से नक्षत्र चिह्न, राशि चिह्न, सम्प्रदाय चिह्न, इष्ट चिह्न अथवा आजीविका चिह्न के निमित्त वलय, दण्ड, तिलक, मेखला आदि के धारण का भी विधान है। साहसिक एवं कूटकार्यों के लिए नीतिशास्त्र में सांकेतिक दण्ड भी उल्लिखित हैं। चाण्डाल आदि के लौहदण्ड, वंशदण्ड तथा ब्राह्मणों के ब्रह्मदण्ड आदि प्रसिद्ध हैं।
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श्रीभागवतानंद गुरु

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