Friday, March 29, 2019

बाहर बारिश हो रही थी, और अन्दर क्लास चल रही थी. तभी टीचर ने बच्चों से पूछा - अगर तुम सभी को 100-100 रुपया दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे ? किसी ने कहा - मैं वीडियो गेम खरीदुंगा.. किसी ने कहा - मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा.. किसी ने कहा - मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी.. तो, किसी ने कहा - मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी.. एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था टीचर ने उससे पुछा - तुम क्या सोच रहे हो, तुम क्या खरीदोगे ? बच्चा बोला -टीचर जी मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा ! टीचर ने पूछा - तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना ? बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया ! बच्चे ने कहा -- मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती है, और कम दिखाई देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ, ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ बड़ा आदमी बन सकूँ, और माँ को सारे सुख दे सकूँ.! टीचर -- बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है ! ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार और, ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना और, मेरी इच्छा है, तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पे हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं ! 20 वर्ष बाद.......... बाहर बारिश हो रही है, और अंदर क्लास चल रही है ! अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वाली गाड़ी आकर रूकती है स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता हैं ! स्कूल में सन्नाटा छा जाता हैं ! मगर ये क्या ? जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते हैं, और कहते हैं -- सर मैं .... उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ ! पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध ! वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है, और रो पड़ता हैं ! दोस्तों -- *मशहूर होना, पर मगरूर मत बनना।* *साधारण रहना, कमज़ोर मत बनना।* *वक़्त बदलते देर नहीं लगती..* शहंशाह को फ़कीर, और फ़क़ीर को शहंशाह बनते, *देर नही लगती ....* यह छोटी सी कहानी आप के साथ शेयर की है, अगर दिल को छू गयी हो तो कृपया शेयर करें। 🙏🏻😊😊🙏🏻🙏🏻😊😊🙏🏻

क्रोध का प्रभाव* बहुत समय पहले की बात है, एक गाँव में एक लड़का रहता था. वह बहुत ही गुस्सैल था, छोटी-छोटी बात पर अपना आपा खो बैठता और लोगों को भला-बुरा कह देता। उसकी इस आदत से परेशान होकर एक दिन उसके पिता ने उसे कीलों से भरा हुआ एक थैला दिया और कहा, “अब जब भी तुम्हें गुस्सा आए तो तुम इस थैले में से एक कील निकालना और बाड़े में ठोक देना।” पहले दिन उस लड़के ने चालीस बार गुस्सा किया और इतनी ही कीलें बाड़े में ठोंक दीं। धीरे-धीरे कीलों की संख्या घटने लगी, उसे लगने लगा की कीलें ठोंकने में इतनी मेहनत करने से अच्छा है कि अपने क्रोध पर काबू किया जाए और अगले कुछ हफ्तों में उसने अपने गुस्से पर बहुत हद तक काबू करना सीख लिया। फिर एक दिन ऐसा आया कि उस लड़के ने पूरे दिन में एक बार भी अपना आपा नही खोया। जब उसने अपने पिता को ये बात बताई तो उन्होंने ने फिर उसे एक काम दे दिया, उन्होंने कहा, “अब हर उस दिन जिस दिन तुम एक बार भी गुस्सा ना करो इस बाड़े से एक कील निकाल देना।” लड़के ने ऐसा ही किया, और बहुत समय बाद वो दिन भी आ गया जब लड़के ने बाड़े में लगी आखिरी कील भी निकाल दी, और प्रसन्न होकर उसने अपने पिता को यह बात बताई। तब पिताजी उसका हाथ पकड़कर उसे बाड़े के पास ले गए और बोले, “बेटे, तुमने बहुत अच्छा काम किया है लेकिन क्या तुम बाड़े में हुए छेदों को देख पा रहे हो। अब वह बाड़ा कभी भी वैसा नहीं बन सकता जैसा वह पहले था। जब तुम क्रोध में कुछ कहते हो तो वो शब्द भी इसी तरह सामने वाले व्यक्ति पर गहरे घाव छोड़ जाते हैं।” इसलिए अगली बार अपना आपा खोने से से पहले आप भी यह अवश्य सोच लें कि यह सामने वाले पर कितना गहरा घाव छोड़ सकता है। हो सकता है उस समय आपका गुस्सा आपको उचित लगे लेकिन यह भी हो सकता है की बाद में आपको अत्याधिक पश्चाताप करने के बावजूद भी सुकून न मिले। ☘🌺☘🌺☘🌺☘

एक गुरूजी अपने शिष्यों से 1 ही बात कहते थे- कण कण में भगवान हैं, ऐसी कोई वस्तु और स्थान नही जहां भगवान न हो। अतः संसार में मौजूद प्रत्येक वस्तु को भगवान मान कर उसे नमन करना चाहिए। यही उनकी शिक्षा का निचोड़ था।* *एक दिन उनका एक शिष्य बाजार से हो कर कहीं जा रहा था। तभी उसने देखा कि रास्ते में सामने से एक हाथी बड़ी तेजी से दौड़ता हुआ आ रहा है। महावत लगातार चिल्ला रहा था- हट जाओ, हट जाओ। हाथी पागल हो गया है। शिष्य को गुरु की बात आ गई और वो वहीं खड़ा रहा।* *शिष्य ने सोचा- मेरी तरह हाथी में भी भगवान का वास है। भगवान को भगवान से कैसा डर? उसने सोचा और पूर्ण भक्ति और प्रेम भाव से रास्ते के बीच डटा रहा।* *यह देख कर महावत जोर से चिल्लाय- हट जाओ, क्यों मरना चाहते हो। पर शिष्य अपनी जगह से एक इंच भी इधर-उधर नही हुआ। फिर वही हुआ जो होना था। पागल हाथी ने शिष्य को उठाकर एक तरफ फेंक दिया। बेचारा घायल शिष्य होकर कराहता रहा।* *उसे अधिक पीड़ा इस बात की थी कि भगवान ने भगवान को क्यों मारा? उसके सहपाठी उसे उठा कर आश्रम मे ले गए। उसने गुरु से कहा- आप तो कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु में भगवान है। देखो, हाथी ने मेरी कैसी दुर्गति की है।* *गुरु ने कहा- यह ठीक है कि प्रत्येक जीव में भगवान है, निश्चित ही हाथी में भी भगवान का वास है पर महावत में भी तो भगवान है। तुमने उसकी बात क्यों नही सुनी? शिष्य को अपनी गलती समझ में आ गई।* *लाइफ मैनेजमेंट* *हम अनेक समस्याओं का समाधान भगवान पर छोड़ देते हैं, जबकि थोड़ा दिमाग लगाकर हम स्वयं ही उन परेशानियों का हल ढूंढ सकते हैं। जरूर नहीं कि हर जगह किताबी ज्ञान का सहारा लिया जाए। कुछ जगह प्रेक्टिकल भी होना पड़ता है।* 🌷🌻🌷🌻🌷🌻🌷🌻🌷

एक पार्क मे दो बुजुर्ग बातें कर रहे थे.... पहला :- मेरी एक पोती है, शादी के लायक है... BA किया है, नौकरी करती है, कद - 5"2 इंच है.. सुंदर है कोई लडका नजर मे हो तो बताइएगा.. दूसरा :- आपकी पोती को किस तरह का परिवार चाहिए...?? पहला :- कुछ खास नही.. बस लडका MA /M.TECH किया हो, अपना घर हो, कार हो, घर मे एसी हो, अपने बाग बगीचा हो, अच्छा job, अच्छी सैलरी, कोई लाख रू. तक हो... दूसरा :- और कुछ... पहला :- हाँ सबसे जरूरी बात.. अकेला होना चाहिए.. मां-बाप,भाई-बहन नही होने चाहिए.. वो क्या है लडाई झगड़े होते है... दूसरे बुजुर्ग की आँखें भर आई फिर आँसू पोछते हुए बोला - मेरे एक दोस्त का पोता है उसके भाई-बहन नही है, मां बाप एक दुर्घटना मे चल बसे, अच्छी नौकरी है, डेढ़ लाख सैलरी है, गाड़ी है बंगला है, नौकर-चाकर है.. पहला :- तो करवाओ ना रिश्ता पक्का.. दूसरा :- मगर उस लड़के की भी यही शर्त है की लडकी के भी मां-बाप,भाई-बहन या कोई रिश्तेदार ना हो... कहते कहते उनका गला भर आया.. फिर बोले :- अगर आपका परिवार आत्महत्या कर ले तो बात बन सकती है.. आपकी पोती की शादी उससे हो जाएगी और वो बहुत सुखी रहेगी.... पहला :- ये क्या बकवास है, हमारा परिवार क्यों करे आत्महत्या.. कल को उसकी खुशियों मे, दुःख मे कौन उसके साथ व उसके पास होगा... दूसरा :- वाह मेरे दोस्त, खुद का परिवार, परिवार है और दूसरे का कुछ नही... मेरे दोस्त अपने बच्चो को परिवार का महत्व समझाओ, घर के बडे ,घर के छोटे सभी अपनो के लिए जरूरी होते है... वरना इंसान खुशियों का और गम का महत्व ही भूल जाएगा, जिंदगी नीरस बन जाएगी... पहले वाले बुजुर्ग बेहद शर्मिंदगी के कारण कुछ नही बोल पाए... दोस्तों परिवार है तो जीवन मे हर खुशी, खुशी लगती है अगर परिवार नही तो किससे अपनी खुशियाँ और गम बांटोगे. जय हिन्द जय भारत।

Sunday, March 24, 2019

बोलने की पात्रता* कृष्ण, महावीर और बुद्ध के समय में वही व्यक्ति बोलने जाता था, जिसने जाना हो; जिसने जाना न हो, वह बोलने की चेष्टा भी नहीं करता था। क्योंकि बिना जाने बोलना महा अपराध है। उससे तुम न मालूम कितने लोगों के जीवन में कांटे बो दोगे। शायद तुम्हें बोलने में थोड़ा मजा आ जाए, रस आ जाए; शायद बोलते बोलते तुम्हें लगे कि तुम बड़े महत्वपूर्ण हो गए हो, क्योंकि कई लोग तुम्हें सुन रहे हैं; शायद पांडित्य की अकड़ और अहंकार में थोड़ी तुम्हें तृप्ति मिले। लेकिन तुम्हारी व्यर्थ की तृप्ति के लिए न मालूम कितने लोग मार्ग से च्युत हो जाएंगे। तुम उन्हें भटका दोगे। _और इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप हत्या नहीं है, इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप किसी को उसके मार्ग से भटका देना है।_ तो जितने बड़े पाप अपात्र बोलने वालों ने किए हैं, उतने बड़े पाप किसी ने भी नहीं किए हैं। क्योंकि कोई गरदन पर तुम्हारी तलवार मार दे, तो शरीर ही कटता है, फिर शरीर मिल जाएगा। लेकिन कोई तुम्हारी आत्मा को रास्ते से भटका दे, तो कुछ ऐसी चीज भटक जाती है कि जन्मों जन्मों खोजकर शायद तुम मुश्किल से वापस अपनी जगह पर आ पाओगे। क्योंकि एक भटकाव दूसरे भटकाव में ले जाता है, कड़िया जुड़ी हैं। दूसरा भटकाव तीसरे भटकाव में ले जाता है। और पीछे लौटना मुश्किल होता चला जाता है। तो पहली तो बात ध्यान रखना, इसकी फिक्र मत करना कि कौन पात्र है सुनने में, कौन नहीं। पहले तो इसकी फिक्र करना कि मैं बोलने में पात्र हूं? मैं कृष्ण पर कुछ कहूं? जब तक कृष्ण चेतना का आविर्भाव न हुआ हो, तब तक मत कहना। और इसके लिए किसी से पूछने जाना है? यह तो तुम भीतर ही जान सकोगे कि कृष्ण चेतना का आविर्भाव हुआ या नहीं हुआ। इसकी और किसी से कसौटी लेने की जरूरत भी नहीं है, किसी से पूछने का कोई कारण भी नहीं है। पूछने तो वही जाएगा, जो संदिग्ध है। और कृष्ण चेतना में संदेह नहीं है, वह असंदिग्ध, स्वतःप्रमाण्य अवस्था है। जब भीतर उदित होती है, तो तुम जानते हो, जैसे सूरज उग गया। अब तुम किसी से पूछते थोड़े ही हो कि रात है या दिन! और पूछो, तो बताओगे कि तुम अंधे हो। कृष्ण ने नहीं लगाई कोई शर्त बोलने वाले पर, क्योंकि उन दिनों यह होता ही न था कि जो न जानता हो, वह बोले। जानकर ही कोई बोलता था। और जब तक न जान लेता था, तब तक कितना ही शास्त्रों से इकट्ठा कर ले, इस भ्रांति में नहीं पड़ता था कि मुझे अनुभव हो गया है। गीता दर्शन  ओशो 

पिता की ममता* शहर के एक अन्तरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के विद्यालय के बग़ीचे में तेज़ धूप और गर्मी की परवाह किये बिना, बड़ी लग्न से पेड़ - पौधों की काट छाँट में लगा था कि तभी विद्यालय के चपरासी की आवाज़ सुनाई दी, "गंगादास! तुझे प्रधानाचार्या जी तुरंत बुला रही हैं।" गंगादास को आख़िरी के पांँच शब्दों में काफ़ी तेज़ी महसूस हुई और उसे लगा कि कोई महत्त्वपूर्ण बात हुई है जिसकी वज़ह से प्रधानाचार्या जी ने उसे तुरंत ही बुलाया है। शीघ्रता से उठा, अपने हाथों को धोकर साफ़ किया और चल दिया, द्रुत गति से प्रधानाचार्या के कार्यालय की ओर। उसे प्रधानाचार्या महोदया के कार्यालय की दूरी मीलों की लग रही थी जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी। उसकी हृदयगति बढ़ गई थी। सोच रहा था कि उससे क्या ग़लत हो गया जो आज उसको प्रधानाचार्या महोदया ने तुरंत ही अपने कार्यालय में आने को कहा। वह एक ईमानदार कर्मचारी था और अपने कार्य को पूरी निष्ठा से पूर्ण करता था। पता नहीं क्या ग़लती हो गयी। वह इसी चिंता के साथ प्रधानाचार्या के कार्यालय पहुँचा...... "मैडम, क्या मैं अंदर आ जाऊँ? आपने मुझे बुलाया था।" "हाँ। आओ और यह देखो" प्रधानाचार्या महोदया की आवाज़ में कड़की थी और उनकी उंगली एक पेपर पर इशारा कर रही थी। "पढ़ो इसे" प्रधानाचार्या ने आदेश दिया। "मैं, मैं, मैडम! मैं तो इंग्लिश पढ़ना नहीं जानता मैडम!" गंगादास ने घबरा कर उत्तर दिया। *"मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ मैडम यदि कोई गलती हो गयी हो तो।* मैं आपका और विद्यालय का पहले से ही बहुत ऋणी हूँ। क्योंकि आपने मेरी बिटिया को इस विद्यालय में निःशुल्क पढ़ने की इज़ाज़त दी। मुझे कृपया एक और मौक़ा दें मेरी कोई ग़लती हुई है तो सुधारने का। मैं आप का सदैव ऋणी रहूंँगा।" गंगादास बिना रुके घबरा कर बोलता चला जा रहा था। उसे प्रधानाचार्या ने टोका "तुम बिना वज़ह अनुमान लगा रहे हो। थोड़ा इंतज़ार करो, मैं तुम्हारी बिटिया की कक्षा-अध्यापिका को बुलाती हूँ।" वे पल जब तक उसकी बिटिया की कक्षा-अध्यापिका प्रधानाचार्या के कार्यालय में पहुँची बहुत ही लंबे हो गए थे गंगादास के लिए। सोच रहा था कि क्या उसकी बिटिया से कोई ग़लती हो गयी, कहीं मैडम उसे विद्यालय से निकाल तो नहीं रहीं। उसकी चिंता और बढ़ गयी थी। कक्षा-अध्यापिका के पहुँचते ही प्रधानाचार्या महोदया ने कहा, "हमने तुम्हारी बिटिया की प्रतिभा को देखकर और परख कर ही उसे अपने विद्यालय में पढ़ने की अनुमति दी थी। अब ये मैडम इस पेपर में जो लिखा है उसे पढ़कर और हिंदी में तुम्हें सुनाएँगी, ग़ौर से सुनो।" कक्षा-अध्यापिका ने पेपर को पढ़ना शुरू करने से पहले बताया, "आज मातृ दिवस था और आज मैंने कक्षा में सभी बच्चों को अपनी अपनी माँ के बारे में एक लेख लिखने को कहा। तुम्हारी बिटिया ने जो लिखा उसे सुनो।" उसके बाद कक्षा- अध्यापिका ने पेपर पढ़ना शुरू किया। "मैं एक गाँव में रहती थी, एक ऐसा गाँव जहाँ शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाओं का आज भी अभाव है। चिकित्सक के अभाव में कितनी ही माँयें दम तोड़ देती हैं बच्चों के जन्म के समय। मेरी माँ भी उनमें से एक थीं। उन्होंने मुझे छुआ भी नहीं कि चल बसीं। मेरे पिता ही वे पहले व्यक्ति थे मेरे परिवार के जिन्होंने मुझे गोद में लिया। पर सच कहूँ तो मेरे परिवार के वे अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने मुझे गोद में उठाया था। बाक़ी की नज़र में तो मैं अपनी माँ को खा गई थी। मेरे पिताजी ने मुझे माँ का प्यार दिया। मेरे दादा - दादी चाहते थे कि मेरे पिताजी दुबारा विवाह करके एक पोते को इस दुनिया में लायें ताकि उनका वंश आगे चल सके। परंतु मेरे पिताजी ने उनकी एक न सुनी और दुबारा विवाह करने से मना कर दिया। इस वज़ह से मेरे दादा - दादीजी ने उनको अपने से अलग कर दिया और पिताजी सब कुछ, ज़मीन, खेती बाड़ी, घर सुविधा आदि छोड़ कर मुझे साथ लेकर शहर चले आये और इसी विद्यालय में माली का कार्य करने लगे। मुझे बहुत ही लाड़ प्यार से बड़ा करने लगे। मेरी ज़रूरतों पर माँ की तरह हर पल उनका ध्यान रहता है।" "आज मुझे समझ आता है कि वे क्यों हर उस चीज़ को जो मुझे पसंद थी ये कह कर खाने से मना कर देते थे कि वह उन्हें पसंद नहीं है, क्योंकि वह आख़िरी टुकड़ा होती थी। आज मुझे बड़ा होने पर उनके इस त्याग के महत्त्व पता चला।" "मेरे पिता ने अपनी क्षमताओं में मेरी हर प्रकार की सुख - सुविधाओं का ध्यान रखा और मेरे विद्यालय ने उनको यह सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जो मुझे यहाँ निःशुल्क पढ़ने की अनुमति मिली। उस दिन मेरे पिता की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था।" "यदि माँ, प्यार और देखभाल करने का नाम है तो मेरी माँ मेरे पिताजी हैं।" "यदि दयाभाव, माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी उस परिभाषा के हिसाब से पूरी तरह मेरी माँ हैं।" "यदि त्याग, माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी इस वर्ग में भी सर्वोच्च स्थान पर हैं।" "यदि संक्षेप में कहूँ कि प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग माँ की पहचान है तो मेरे पिताजी उस पहचान पर खरे उतरते हैं और मेरे पिताजी विश्व की सबसे अच्छी माँ हैं।" आज मातृ दिवस पर मैं अपने पिताजी को शुभकामनाएँ दूँगी और कहूँगी कि आप संसार के सबसे अच्छे पालक हैं। बहुत गर्व से कहूँगी कि ये जो हमारे विद्यालय के परिश्रमी माली हैं, मेरे पिता हैं।" "मैं जानती हूँ कि मैं आज की लेखन परीक्षा में असफल हो जाऊँगी। क्योंकि मुझे माँ पर लेख लिखना था और मैंने पिता पर लिखा,पर यह बहुत ही छोटी सी क़ीमत होगी उस सब की जो मेरे पिता ने मेरे लिए किया। धन्यवाद"। आख़िरी शब्द पढ़ते - पढ़ते अध्यापिका का गला भर आया था और प्रधानाचार्या के कार्यालय में शांति छा गयी थी। इस शांति में केवल गंगादास के सिसकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। बग़ीचे में धूप की गर्मी उसकी कमीज़ को गीला न कर सकी पर उस पेपर पर बिटिया के लिखे शब्दों ने उस कमीज़ को पिता के आँसुओं से गीला कर दिया था। वह केवल हाथ जोड़ कर वहाँ खड़ा था। उसने उस पेपर को अध्यापिका से लिया और अपने हृदय से लगाया और रो पड़ा। प्रधानाचार्या ने खड़े होकर उसे एक कुर्सी पर बैठाया और एक गिलास पानी दिया तथा कहा, "गंगादास तुम्हारी बिटिया को इस लेख के लिए पूरे 10/10 नम्बर दिए गए है। यह लेख मेरे अब तक के पूरे विद्यालय जीवन का सबसे अच्छा मातृ दिवस का लेख है। हम कल मातृ दिवस अपने विद्यालय में बड़े ज़ोर - शोर से मना रहे हैं। इस दिवस पर विद्यालय एक बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित करने जा रहा है। विद्यालय की प्रबंधक कमेटी ने आपको इस कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाने का निर्णय लिया है। यह सम्मान होगा उस प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग का जो एक आदमी अपने बच्चे के पालन के लिए कर सकता है। यह सिद्ध करता है कि आपको एक औरत होना आवश्यक नहीं है एक पालक बनने के लिए। साथ ही यह अनुशंषा करता है उस विश्वाश का जो विश्वास आपकी बेटी ने आप पर दिखाया। हमें गर्व है कि संसार का सबसे अच्छा पिता हमारे विद्यालय में पढ़ने वाली बच्ची का पिता है जैसा कि आपकी बिटिया ने अपने लेख में लिखा। गंगादास हमें गर्व है कि आप एक माली हैं और सच्चे अर्थों में माली की तरह न केवल विद्यालय के बग़ीचे के फूलों की देखभाल की बल्कि अपने इस घर के फूल को भी सदा ख़ुशबूदार बनाकर रखा जिसकी ख़ुशबू से हमारा विद्यालय महक उठा। तो क्या आप हमारे विद्यालय के इस मातृ दिवस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनेंगे?" रो पड़ा गंगादास और दौड़ कर बिटिया की कक्षा के बाहर से आँसू भरी आँखों से निहारता रहा , अपनी प्यारी बिटिया को। *संसार की समस्त प्यारी - प्यारी बेटियों के पालकों को समर्पित* *सदैव प्रसन्न रहिये* *जो प्राप्त है-पर्याप्त है* 🌺🌻🌺🌻🌺🌻🌺

कार से उतरकर भागते हुए हॉस्पिटल में पहुंचे नोजवान बिजनेस मैन ने पूछा.. “डॉक्टर, अब कैसी हैं माँ?“ हाँफते हुए उसने पूछा। *“अब ठीक हैं। माइनर सा स्ट्रोक था। ये बुजुर्ग लोग उन्हें सही समय पर लें आये, वरना कुछ बुरा भी हो सकता था।* “ डॉ ने पीछे बेंच पर बैठे दो बुजुर्गों की तरफ इशारा कर के जवाब दिया। “रिसेप्शन से फॉर्म इत्यादि की फार्मैलिटी करनी है अब आपको।” डॉ ने जारी रखा। “थैंक यू डॉ. साहेब, वो सब काम मेरी सेक्रेटरी कर रही हैं“ अब वो रिलैक्स था। फिर वो उन बुजुर्गों की तरफ मुड़ा.. “थैंक्स अंकल, पर मैनें आप दोनों को नहीं पहचाना।“ “सही कह रहे हो बेटा, तुम नहीं पहचानोगे क्योंकि *हम तुम्हारी माँ के वाट्सअप फ्रेंड हैं ।”* एक ने बोला। “क्या, वाट्सअप फ्रेंड ?” चिंता छोड़ , उसे अब, अचानक से अपनी माँ पर गुस्सा आया। *“58 + नॉम का वाट्सप ग्रुप है हमारा।”* “सिक्सटी प्लस नाम के इस ग्रुप में साठ साल व इससे ज्यादा उम्र के लोग जुड़े हुए हैं। इससे जुड़े हर मेम्बर को उसमे रोज एक मेसेज भेज कर अपनी उपस्थिति दर्ज करानी अनिवार्य होती है, साथ ही अपने आस पास के बुजुर्गों को इसमें जोड़ने की भी ज़िम्मेदारी दी जाती है।” “महीने में एक दिन हम सब किसी पार्क में मिलने का भी प्रोग्राम बनाते हैं।” “जिस किसी दिन कोई भी मेम्बर मैसेज नहीं भेजता है तो उसी दिन उससे लिंक लोगों द्वारा, उसके घर पर, उसके हाल चाल का पता लगाया जाता है।” आज सुबह तुम्हारी माँ का मैसेज न आने पर हम 2 लोग उनके घर पहुंच गए..। वह गम्भीरता से सुन रहा था । *“पर माँ ने तो कभी नहीं बताया।*" उसने धीरे से कहा। “माँ से अंतिम बार तुमने कब बात की थी बेटा? क्या तुम्हें याद है ?” एक ने पूछा। बिज़नेस में उलझा, तीस मिनट की दूरी पर बने माँ के घर जाने का समय निकालना कितना मुश्किल बना लिया था खुद उसने। हाँ पिछली दीपावली को ही तो मिला था वह उनसे गिफ्ट देने के नाम पर। बुजुर्ग बोले.. “बेटा, तुम सबकी दी हुई सुख सुविधाओं के बीच, अब कोई और माँ या बाप अकेले घर मे कंकाल न बन जाएं... बस यही सोच ये ग्रुप बनाया है हमने। वरना दीवारों से बात करने की तो हम सब की आदत पड़ चुकी है।” *उसके सर पर हाथ फेर कर दोनों बुज़ुर्ग अस्पताल से बाहर की ओर निकल पड़े। नवयुवक एकटक उनको जाते हुए देखता ही रह गया।* अगर ये आपको कुछ सीख दे तो कृपया किसी और को भी भेजने में संकोच ना करे ? *धन्यवाद* *कुछ सालोंके बाद हमे भी ऐसा ग्रुप बनाना पड़ सकता है।* 🌻🌱🌻🌱🌻🌱🌻🌱🌻

Saturday, March 23, 2019

बोलने की पात्रता* कृष्ण, महावीर और बुद्ध के समय में वही व्यक्ति बोलने जाता था, जिसने जाना हो; जिसने जाना न हो, वह बोलने की चेष्टा भी नहीं करता था। क्योंकि बिना जाने बोलना महा अपराध है। उससे तुम न मालूम कितने लोगों के जीवन में कांटे बो दोगे। शायद तुम्हें बोलने में थोड़ा मजा आ जाए, रस आ जाए; शायद बोलते बोलते तुम्हें लगे कि तुम बड़े महत्वपूर्ण हो गए हो, क्योंकि कई लोग तुम्हें सुन रहे हैं; शायद पांडित्य की अकड़ और अहंकार में थोड़ी तुम्हें तृप्ति मिले। लेकिन तुम्हारी व्यर्थ की तृप्ति के लिए न मालूम कितने लोग मार्ग से च्युत हो जाएंगे। तुम उन्हें भटका दोगे। _और इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप हत्या नहीं है, इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप किसी को उसके मार्ग से भटका देना है।_ तो जितने बड़े पाप अपात्र बोलने वालों ने किए हैं, उतने बड़े पाप किसी ने भी नहीं किए हैं। क्योंकि कोई गरदन पर तुम्हारी तलवार मार दे, तो शरीर ही कटता है, फिर शरीर मिल जाएगा। लेकिन कोई तुम्हारी आत्मा को रास्ते से भटका दे, तो कुछ ऐसी चीज भटक जाती है कि जन्मों जन्मों खोजकर शायद तुम मुश्किल से वापस अपनी जगह पर आ पाओगे। क्योंकि एक भटकाव दूसरे भटकाव में ले जाता है, कड़िया जुड़ी हैं। दूसरा भटकाव तीसरे भटकाव में ले जाता है। और पीछे लौटना मुश्किल होता चला जाता है। तो पहली तो बात ध्यान रखना, इसकी फिक्र मत करना कि कौन पात्र है सुनने में, कौन नहीं। पहले तो इसकी फिक्र करना कि मैं बोलने में पात्र हूं? मैं कृष्ण पर कुछ कहूं? जब तक कृष्ण चेतना का आविर्भाव न हुआ हो, तब तक मत कहना। और इसके लिए किसी से पूछने जाना है? यह तो तुम भीतर ही जान सकोगे कि कृष्ण चेतना का आविर्भाव हुआ या नहीं हुआ। इसकी और किसी से कसौटी लेने की जरूरत भी नहीं है, किसी से पूछने का कोई कारण भी नहीं है। पूछने तो वही जाएगा, जो संदिग्ध है। और कृष्ण चेतना में संदेह नहीं है, वह असंदिग्ध, स्वतःप्रमाण्य अवस्था है। जब भीतर उदित होती है, तो तुम जानते हो, जैसे सूरज उग गया। अब तुम किसी से पूछते थोड़े ही हो कि रात है या दिन! और पूछो, तो बताओगे कि तुम अंधे हो। कृष्ण ने नहीं लगाई कोई शर्त बोलने वाले पर, क्योंकि उन दिनों यह होता ही न था कि जो न जानता हो, वह बोले। जानकर ही कोई बोलता था। और जब तक न जान लेता था, तब तक कितना ही शास्त्रों से इकट्ठा कर ले, इस भ्रांति में नहीं पड़ता था कि मुझे अनुभव हो गया है। गीता दर्शन  ओशो 

शादी की सुहागसेज पर बैठी एक स्त्री का पति जब भोजनका थाल लेकर अंदर आया तो पूरा कमरा उस स्वादिष्ट भोजन की खुशबू से भर गया रोमांचित उस स्त्री ने अपने पति से निवेदन किया कि मांजी को भी यहीं बुला लेते तो हम तीनों साथ बैठकर भोजन करते। पति ने कहा छोड़ो उन्हें वो खाकर सो गई होंगी आओ हम साथ में भोजन करते है प्यार से, उस स्त्री ने पुनः अपने पति से कहा कि नहीं मैंने उन्हें खाते हुए नहीं देखा है, तो पति ने जवाब दिया कि क्यों तुम जिद कर रही हो शादी के कार्यों से थक गयी होंगी इसलिए सो गई होंगी, नींद टूटेगी तो खुद भोजन कर लेंगी। तुम आओ हम प्यार से खाना खाते हैं। उस स्त्री ने तुरंत divorce लेने का फैसला कर लिया और divorce लेकर उसने दूसरी शादी कर ली और इधर उसके पहले पति ने भी दूसरी शादी कर ली। दोनों अलग- अलग सुखी घर गृहस्ती बसा कर खुशी खुशी रहने लगे। इधर उस स्त्री के दो बच्चे हुए जो बहुत ही सुशील और आज्ञाकारी थे। जब वह स्त्री ६० वर्ष की हुई तो वह बेटों को बोली में चारो धाम की यात्रा करना चाहती हूँ ताकि तुम्हारे सुखमय जीवन के लिए प्रार्थना कर सकूँ। बेटे तुरंत अपनी माँ को लेकर चारों धाम की यात्रा पर निकल गये। एक जगह तीनों माँ बेटे भोजन के लिए रुके और बेटे भोजन परोस कर मां से खाने की विनती करने लगे। उसी समय उस स्त्री की नजर सामने एक फटेहाल, भूखे और गंदे से एक वृद्ध पुरुष पर पड़ी जो इस स्त्री के भोजन और बेटों की तरफ बहुत ही कातर नजर से देख रहा था। उस स्त्री को उस पर दया आ गईं और बेटों को बोली जाओ पहले उस वृद्ध को नहलाओ और उसे वस्त्र दो फिर हम सब मिलकर भोजन करेंगे। बेटे जब उस वृद्ध को नहलाकर कपड़े पहनाकर उसे उस स्त्री के सामने लाये तो वह स्त्री आश्चर्यचकित रह गयी वह वृद्ध वही था जिससे उसने शादी की सुहागरात को ही divorce ले लिया था। उसने उससे पूछा कि क्या हो गया जो तुम्हारी हालत इतनी दयनीय हो गई तो उस वृद्ध ने नजर झुका के कहा कि सब कुछ होते ही मेरे बच्चे मुझे भोजन नहीं देते थे, मेरा तिरस्कार करते थे, मुझे घर से बाहर निकाल दिया। उस स्त्री ने उस वृद्ध से कहा कि इस बात का अंदाजा तो मुझे तुम्हारे साथ सुहागरात को ही लग गया था जब तुमने पहले अपनी बूढ़ी माँ को भोजन कराने के बजाय उस स्वादिष्ट भोजन की थाल लेकर मेरेकमरे में आ गए और मेरे बार-बार कहने के बावजूद भी आप ने अपनी माँ का तिरस्कार किया। उसी का फल आज आप भोग रहे हैं। *जैसा व्यहवार हम अपने* *बुजुर्गों के साथ करेंगे उसी* *देखा-देख कर हमारे बच्चों* *में भी यह गुण आता है कि* *शायद यही परंपरा होती है।* *सदैव माँ बाप की सेवा ही* *हमारा दायित्व बनता है।* *जिस घर में माँ बाप हँसते है,* *वहीं प्रभु बसते है।* 🌻🌹🌻🌹🌻🌹🌻

मन* विवेकानंद ने लिखा है कि वे पहली दफा हिमालय गए। एक पहाड़ी के पास से गुजरते थे। संन्यासी के गैरिक वस्त्र ! कुछ बंदरो को मजा आ गया। कुछ बंदर उन्हें चिढ़ाने लगे। संन्यासी को देख कर कई तरह के बंदरो को चिढ़ाने का मजा आता है। बंदरो को ही चिढ़ाने का मजा आता है, और किसको आएगा ! अब बंदर कोई धार्मिक तो होते नहीं, शैतान प्रकृति के होते हैं। मन जैसा ही उनका ढंग होता है। इसलिए तो मन को बंदर कहते है। विवेकानंद को डर लगा। ऐसे तो मजबूत आदमी थे। मगर कितने ही मजबूत होओ, कोई बीस-पच्चीस बंदर अगर तुम्हारे पीछे पड़े हों... एक ही काफी है। वे बंदर उनके पीछे ही चलने लगे। आवाज कसें, खिल्ली उड़ाएं। फिर तो कंकड़-पत्थर फेंकने लगे। विवेकानंद ने भागना शुरू कर दिया। विवेकानंद भागे तो और बंदर जो वृक्षों पर बैठे थे उनको भी रस आ गया। घिराव ही हो गया। और बंदर भी उतर आए। विवेकानंद ने देखा, यह तो बचने का उपाय नहीं है। ऐसे अगर मैं भागा तो ये मेरी चिंदी-चिंदी कर डालेंगे। वे रुक कर खड़े हो गए। वे रुक कर खड़े हुए तो बंदर भी खड़े हो गए। बंदर ही तो ठहरे आखिर ! जब उन्होंने देखा कि मेरे रुकने से ये भी रुक गए, तो पीछे मुड़ कर उन्होंने बंदरों की तरफ देखा, तो बंदर थोड़े सहमे, दो कदम पीछे भी हटे। विवेकानंद उनकी तरफ दौड़े, तो वे भाग कर वृक्षों पर सवार हो गए। विवेकानंद ने अपने संस्मरणों में लिखा कि उस दिन मुझे समझ में आया कि मन के साथ भी यही हालत है : इससे डरो, इसकी मानो, इससे भागो, तो यह और सताता है। रुको, ठहरो, घूर कर इसे देखो, मत डरो, दो कदम इसकी तरफ बढ़ाओ, इसको चुनौती दे दो कि तुझे जो करना हो कर, हम हिलने वाले नहीं, डुलने वाले नहीं - तो यह पूंछ हिलाने लगता है। ☘☘☘☘☘☘☘☘

*अच्छी सिख

*अच्छी सिख*
एक बार एक पिता और पुत्र साथ कहीं टहलने निकले, टहलते टहलते वे दूर खेतों की तरफ निकल आये। तभी बातों बातों में पुत्र ने देखा की रास्ते में पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं , जो संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे जो अब अपना काम ख़त्म कर घर वापस जाने की तयारी कर रहा था .
पुत्र को मजाक सूझा उसने पिता से कहा , “ पिताजी जी क्यों न आज की शाम को थोड़ी शरारत से यादगार बनायें, आखिर मस्ती ही तो आनन्द का सही श्रोत है और यादों में भी ये पल याद रहते है, पिता ने असमंजस वस बेटे की ओर देखा , पुत्र बोला हम ये जूते कहीं छिपा कर झाड़ियों के पीछे छिप जाएं ; जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा !!” उसकी तलब देखने लायक होगी और इसका आनन्द मैं जीवन भर याद रखूंगा।।
पिता पुत्र की बात को सुन गम्भीर हुये और बोले,,  “ बेटा किसी गरीब और कमजोर के सांथ और उसकी जरूरत की वस्तु  के साथ इस तरह का भद्दा मजाक कभी न करना ,जिन चीजों की तुम्हारी नजरों में कोई कीमत नहीं वो उस गरीब के लीये बेसकीमती है, अगर तुम्हें ये शाम यादगार ही बनानी है तो आओ आज हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छिप कर देखें की इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है !!”
पिता ने ऐसा ही किया और दोनों पास की ऊँची झाड़ियों में छुप गए .
मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया . उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ , उसने जल्दी  से जूते हाथ में लिए और देखा की अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे , उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें पलट -पलट कर देखने लगा.
फिर उसने इधर -उधर देखने लगा की उसका मददगार शख्स को है?? दूर -दूर तक कोई नज़र नहीं आया तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए . अब उसने दूसरा जूता उठाया , उसमे भी सिक्के पड़े थे …मजदूर भावविभोर हो गया , वो घुटनो के बल जमीन पर बैठ, आसमान की तरफ देख फुट फुट कर रोने लगे गया,  आसमान की तरफ हाँथ जोड़ बोला
“हे भगवान् ,आज आप हिं किसी न किसी रूप में यहां आये थे, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए  आपका और आपके माध्यम से जिसने भी ये मदद दी उसका लाख -लाख धन्यवाद , आज आपकी  सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखें बच्चों को रोटी मिल सकेगी.” तुम बोहत दयालु हो प्रभु कोट कोट धन्यवाद।।
मजदूर की बातें सुन बेटे की आँखें भर आयीं . पिता ने पुत्र को सीने से लगाते हुयेे कहा – “ क्या तुम्हारी मजाक मजे वाली बात से जो आनन्द तुम्हें जीवन भर याद रहता उसकी तुलना में इस गरीब के आंसू और तुम्हें दिए हुये आशीर्वाद तुंम्हे जीवन पर्यतन जो आनन्द देंगे उसकी तुलना की जा सकती है?? क्या इसका आनन्द उससे कम है??
पिताजी आज आपसे मुझे जो सिखने को मिला है उसके आनंद को मैं अपने अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ, अंदर में एक अजीब सा सुकून है। आज के प्राप्त सुख और आनन्द को  मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा . आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया हूँ जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था आज तक मैं मजा और मस्ती , मजाक को ही वास्तविक आनन्द समझता था,पर आज मैं समझ गया हूँ कि लेने  की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है . देने का आनंद असीम है . देना ही देवत्तव है .”

कथा सार----
आज हम सुखों को अपनी इच्छाओं में,  वस्तुओं में, घूमने में, व्यसन में , मौज मस्ती में, पैसों में, तरक्की में, भोग में, खाने पीने में, ढूंढ रहे हैं,, पर क्या सुख और शांति की प्राप्ति हुई???
दरअसल हम सुख को ढूंढ बाहर की चीजों में रहे हैं और वो हमारे अंदर ही है ,जरूरत बस उसे देखने भर मात्र की ही है।।
देने का सुख अन्य सभी सुखों से बड़ा है,यहां देने का मतलब पैसे, दान , या सिर्फ मदद् और पैसों से नही है, जिसके पास है वो भले दे उसमे कुछ गलत नहीं है, पर पैसों से भी बद्धकर दौलत है, प्रेम, सहयोग, विश्वास, अपनत्व, मान, समानता, ये ऐसा धन है जिसे आप चाहे जितना  लोगों में बाँट सकते हो जिनकी तुलना पैसों से नहीं की जा सकती, और इसका सुख असीम है। क्योंकि प्रेमऔर सुख  वो धन है जो न मांग कर प्राप्त किया जा सकता है, न छीन कर, और न ही वस्तूओं और कामनाओं को प्राप्त करके ,,  यह तो केवल बाँटने से ही प्राप्त हो सकता है।।

*जय श्रीराधे कृष्णा*

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*-:- गुरु का महत्व -:-*

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*-:- गुरु का महत्व -:-*
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--मैने एक आदमी से पूछा कि गुरू कौन है! वो सेब खा रहा था,उसने एक सेब मेरे हाथ मैं देकर मुझसे पूछा इसमें कितने बीज हें बता सकते हो ?
--सेब काटकर मैंने गिनकर कहा तीन बीज हैं!
उसने एक बीज अपने हाथ में लिया और फिर पूछा
इस बीज में कितने सेब हैं यह भी सोचकर बताओ?
मैं सोचने लगा एक बीज से एक पेड़, एक पेड़ से अनेक सेव अनेक सेबो में फिर तीन तीन बीज हर बीज से फिर एक एक पेड़ और यह अनवरत क्रम!
वो मुस्कुराते हुए बोले : बस इसी तरह गुरु की कृपा हमें प्राप्त होती रहती है! बस हमें उसकी भक्ति का एक बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है!
-:-गुरू एक तेज हे जिनके आते ही, सारे सन्शय के अंधकार खतम हो जाते हैं!
-:-गुरू वो मृदंग है जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते है!
-:-गुरू वो ज्ञान हैं जिसके मिलते ही भय समाप्त हो जाता है ।
-:-गुरू वो दीक्षा है जो सही मायने में मिलती है तो भवसागर पार हो जाते है!
-:-गुरू वो नदी है जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हैं!
-:-गुरू वो सत चित आनंद है जो हमें हमारी पहचान देता है!
-:-गुरू वो बांसुरी है जिसके बजते ही मन और शरीर आनंद अनुभव करता है!
-:-गुरू वो अमृत है जिसे पीकर कोई कभी प्यासा नही रहता है!
-:-गुरू वो कृपा ही है जो सिर्फ कुछ सद शिष्यों को विशेष रूप मे मिलती है और कुछ पाकर भी समझ नही पाते हैं!
-:-गुरू वो खजाना है जो अनमोल है!
-:-गुरू वो प्रसाद है जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ भी मांगने की ज़रूरत नही पड़ती हैं ||

🕉🚩जय श्री गुरू देव🚩🕉
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