Saturday, March 23, 2019

मन* विवेकानंद ने लिखा है कि वे पहली दफा हिमालय गए। एक पहाड़ी के पास से गुजरते थे। संन्यासी के गैरिक वस्त्र ! कुछ बंदरो को मजा आ गया। कुछ बंदर उन्हें चिढ़ाने लगे। संन्यासी को देख कर कई तरह के बंदरो को चिढ़ाने का मजा आता है। बंदरो को ही चिढ़ाने का मजा आता है, और किसको आएगा ! अब बंदर कोई धार्मिक तो होते नहीं, शैतान प्रकृति के होते हैं। मन जैसा ही उनका ढंग होता है। इसलिए तो मन को बंदर कहते है। विवेकानंद को डर लगा। ऐसे तो मजबूत आदमी थे। मगर कितने ही मजबूत होओ, कोई बीस-पच्चीस बंदर अगर तुम्हारे पीछे पड़े हों... एक ही काफी है। वे बंदर उनके पीछे ही चलने लगे। आवाज कसें, खिल्ली उड़ाएं। फिर तो कंकड़-पत्थर फेंकने लगे। विवेकानंद ने भागना शुरू कर दिया। विवेकानंद भागे तो और बंदर जो वृक्षों पर बैठे थे उनको भी रस आ गया। घिराव ही हो गया। और बंदर भी उतर आए। विवेकानंद ने देखा, यह तो बचने का उपाय नहीं है। ऐसे अगर मैं भागा तो ये मेरी चिंदी-चिंदी कर डालेंगे। वे रुक कर खड़े हो गए। वे रुक कर खड़े हुए तो बंदर भी खड़े हो गए। बंदर ही तो ठहरे आखिर ! जब उन्होंने देखा कि मेरे रुकने से ये भी रुक गए, तो पीछे मुड़ कर उन्होंने बंदरों की तरफ देखा, तो बंदर थोड़े सहमे, दो कदम पीछे भी हटे। विवेकानंद उनकी तरफ दौड़े, तो वे भाग कर वृक्षों पर सवार हो गए। विवेकानंद ने अपने संस्मरणों में लिखा कि उस दिन मुझे समझ में आया कि मन के साथ भी यही हालत है : इससे डरो, इसकी मानो, इससे भागो, तो यह और सताता है। रुको, ठहरो, घूर कर इसे देखो, मत डरो, दो कदम इसकी तरफ बढ़ाओ, इसको चुनौती दे दो कि तुझे जो करना हो कर, हम हिलने वाले नहीं, डुलने वाले नहीं - तो यह पूंछ हिलाने लगता है। ☘☘☘☘☘☘☘☘

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