Sunday, May 19, 2019











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Friday, May 17, 2019

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Monday, April 8, 2019

🏿क्या आपने जंजीर खोल ली...?* एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे-से गांव में, एक बड़ी अदभुत घटना घट गई। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गये और शराब-घर से बाहर निकले तो चांद की बरसती चांदनी में उन्हें यह खयाल आया कि नदी पर जायें और नौका-विहार करें। रात बड़ी सुन्दर और नशे से भरी हुई थी। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गये। नाव वहां बंधी थी। मछुए नाव बांधकर घर जा चुके थे। रात आधी हो गयी थी। वे एक नाव में सवार हो गये। उन्होंने पतवार उठा ली और नाव खेना शुरू किया। फिर वे रात देर तक नाव खेते रहे। सुबह की ठण्ड़ी हवाओं ने उन्हें सचेत किया। जब उनका नशा कुछ कम हुआ तो उनमें से किसी ने पूछा, ‘‘कहां आ गये होंगे अब तक हम। आधी रात तक हमने यात्रा की, न-मालूम कितनी दूर तक निकल आये होंगे। नीचे उतर कर कोई देख ले कि किस दिशा में हम चल रहे हैं, कहां पहुंच रहे हैं? ”जो नीचे उतरा था, वह नीचे उतर कर हंसने लगा। उसने कहा, ‘‘दोस्तो! तुम भी उतर आओ। हम कहीं भी नहीं पहुंचे हैं। हम वहीं खड़े हैं, जहां रात नाव खडी थी। ”वे बहुत हैरान हुए। रात भर उन्होंने पतवार चलायी थी और पहुंचे कहीं भी नहीं थे! नीचे उतर कर उन्होंने देखा तो पता चला, नाव की जंजीरें किनारे से बंधी रह गयी थीं, उन्हें वे खोलना भूल गये थे! जीवन भी, पूरे जीवन नाव खेने पर, पूरे जीवन पतवार खेने पर कहीं पहुंचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। मरते समय आदमी वहीं पाता है स्वयं को, जहां वह जन्मा था! ठीक उसी किनारे पर, जहां आंख खोली थी- आंख बंद करते समय आदमी पाता है कि वहीं खड़ा है। और तब बड़ी हैरानी होती है कि इतनी जो दौड़- धूप की, उसका क्या हुआ? वह जो प्रण किया था कहीं पहुंचने का, वह जो यात्रा की थी कहीं पहुंचने के लिए, वह सब निष्फल गयी! मृत्यु के क्षण में आदमी वहीं पाता है अपने को, जहां वह जन्म के क्षण में था! तब सारा जीवन एक सपना मालुम पड़ने लगता है। नाव कहीं बंधी रह गयी किसी किनारे से। हां, कुछ लोग-कुछ सौभाग्यशाली लोग, मरते क्षण वहां पहुंच जाते हैं, जहां जीवन का आकाश है, जहां जीवन का प्रवास है, जहां सत्य है, जहां परमात्मा का मंदिर है। लेकिन, वहां वे ही लोग पहुंचते हैं, जो किनारे से, खूंटे से जंजीर खोलने की याद रखते हैं। !! ओशो !! 🌹🌸🌹🌸🌹🌸🌹

"जीने की कला"* 🔵 *एक शाम माँ ने दिनभर की लम्बी थकान एवं काम के बाद जब डिनर बनाया तो उन्होंने पापा के सामने एक प्लेट सब्जी और एक जली हुई रोटी परोसी। मुझे लग रहा था कि इस जली हुई रोटी पर कोई कुछ कहेगा।* *परन्तु पापा ने उस रोटी को आराम से खा लिया ।मैंने माँ को पापा से उस जली रोटी के लिए "साॅरी" बोलते हुए जरूर सुना था। और मैं ये कभी नहीं भूल सकता जो पापा ने कहा "प्रिये, मूझे जली हुई कड़क रोटी बेहद पसंद है।"* *देर रात को मैंने पापा से पूछा, क्या उन्हें सचमुच जली रोटी पसंद है?* *उन्होंने मुझे अपनी बाहों में लेते हुए कहा - तुम्हारी माँ ने आज दिनभर ढ़ेर सारा काम किया, और वो सचमुच बहुत थकी हुई थी और...वेसे भी...एक जली रोटी किसी को ठेस नहीं पहुंचाती, परन्तु कठोर-कटू शब्द जरूर पहुंचाते हैं।* *तुम्हें पता है बेटा - जिंदगी भरी पड़ी है अपूर्ण चीजों से...अपूर्ण लोगों से... कमियों से...दोषों से...मैं स्वयं सर्वश्रेष्ठ नहीं, साधारण हूँ और शायद ही किसी काम में ठीक हूँ।* *मैंने इतने सालों में सीखा है कि---* *"एक दूसरे की गलतियों को स्वीकार करो...अनदेखी करो... और चुनो... पसंद करो...आपसी संबंधों को सेलिब्रेट करना।"* *मित्रों, जिदंगी बहुत छोटी है...उसे हर सुबह दु:ख...पछतावे...खेद के साथ जताते हुए बर्बाद न करें।* *जो लोग तुमसे अच्छा व्यवहार करते हैं, उन्हें प्यार करो ओर जो नहीं करते उनके लिए दया सहानुभूति रखो।* *किसी ने क्या खूब कहा है---* *"मेरे पास वक्त नहीं उन लोगों से नफरत करने का जो मुझे पसंद नहीं करते*, *क्योंकि मैं व्यस्त हूँ उन लोगों को प्यार करने में जो मुझे पसंद करते है।* 🌻🌹🌻🌹🌻🌹🌻

प्रश्न : मेरी पत्‍नी बहुत कुरूप है , मैं क्या करूं ? ओशो : गजब के प्रश्‍न पूछते हो .. अब मैं कोई प्‍लास्‍टिक सर्जन थोड़े हूं , अगर पत्‍नी कुरूप है, तो ध्‍यान करो पत्‍नी पर—लाभ होगा .. सुंदर स्‍त्री खतरे में ले जाए; कुरूप न कभी खतरे में नहीं ले जाए। इस मौके को चूको मत सुकरात से किसी ने पूछा.। एक युवक आया। उसने कहा : मैं विवाह करना चाहता हूं। मैं करूं या न करूं? आपसे इसलिए पूछने आया हूं कि आप भुक्तभोगी हैं। सुकरात को इस दुनिया की खतरनाक से खतरनाक औरत मिली थी, झेनथेप्पे उसका नाम था। मगरमच्छ कहना चाहिए स्त्री नहीं। मारती थी सुकरात को! सुकरात जैसा प्यारा आदमी! मगर परमात्मा अक्सर ऐसे प्यारे आदमियों की बड़ी परीक्षाएं लेता है। भेजी होगी झेनथेप्पे को—कि लग जा इसके पीछे! मारती थी। डांटती थी। बीच—बीच में आ जाती। सुकरात अपने शिष्यों को समझा रहे हैं, वह बीच में खड़ी हो जाती—कि बंद करो बकवास! एक बार तो उसने लाकर पूरी की पूरी केतली गरम पानी कीं—चाय बना रही थी, क्रोध आ गया—सुकरात समझा रहा होगा कुछ लोगों को, उसने पूरी केतली उसके सिर पर आकर उंडेल दी। सुकरात का चेहरा सदा के लिए जल गया। आधा चेहरा काला पड़ गया। तो उस युवक ने पूछा इसीलिए आपसे पूछने आया हूं कि आप भुक्तभोगी हैं; आप क्या कहते हैं ? विवाह करूं या न करूं? सुकरात ने कहा. करो। अगर स्त्री अच्छी मिली, तो सुख पाओगे। अगर मेरी जैसी स्त्री मिली, दार्शनिक हो जाओगे। लाभ ही लाभ है। अब तुम कह रहे हो कि कुरूप स्त्री.! कुरूप स्त्री पर ध्यान अगर करो, तो विराग— भाव पैदा होगा। विरागी हो जाओगे। चूको मत अवसर। अगले जन्म में कहीं भूल—चूक से सुंदर स्त्री मिल जाए, तो झंझटें आएंगी। मुल्ला नसरुद्दीन शादी करता था, तो गांव की सबसे कुरूप स्त्री को चुन लिया। लोग बड़े चौंके। धन है उसके पास, पद है, प्रतिष्ठा है। सुंदर से सुंदर स्त्रियां उसके पीछे दीवानी थीं। और इस नासमझ ने सबसे ज्यादा कुरूप स्त्री को चुन लिया। जिसकी कि गांव के लोग विवाह की संभावना ही नहीं मानते थे—कि कौन इससे विवाह करेगा! कौन अपने को इतना कष्ट देना चाहेगा? उस स्त्री की तरफ देखना भी घबड़ाने वाला था! मुल्ला ने जब शादी कर ली, तो लोगों ने पूछा कि यह तुमने क्या किया! उसने कहा. इसके बड़े लाभ हैं। इसको देख—देखकर मैं संसार की असारता का विचार करूंगा। इसको देख—देखकर बुद्ध जैसे व्यक्तियों के वचन मेरे खयाल में आएंगे कि सब असार है। यहां कुछ सार नहीं है। और दूसरा. यह कुरूप स्त्री है, इसकी वजह से मैं सदा निश्चित रहूंगा। सुंदर स्त्री का कोई भरोसा नहीं है। लोग उसके प्रेम में पड़ जाएं; वह किसी के प्रेम में पड़ जाए! इस पर मैं हमेशा निश्चित रहूंगा। दो—चार साल भी चला जाऊं कहीं, कोई फिकर नहीं। घर आओ, अपनी स्त्री अपनी है। और सुंदर स्त्रियां बाहर से जितनी सुंदर होती हैं, उतनी भीतर से कुरूप हो जाती हैं। संतुलन रखती हैं। अक्सर ऐसा होगा कि सुंदर स्त्री की जबान कड़वी होगी; व्यवहार कठोर होगा; हेंकड़पन होगा; अहंकार होगा। सुंदर स्त्री भीतर से दुर्गंध देगी। सुंदर पुरुष के साथ भी यही बात है। कुरूप स्त्री—परिपूरक खोजने पड़ते हैं उसे। देह में तो सौंदर्य नहीं है, इसलिए सेवा करेगी; प्रेम करेगी; चिंता लेगी। दुर्व्यवहार न करेगी, क्योंकि दुर्व्यवहार तो वैसे ही काफी हो रहा है! वह तो चेहरे के कारण ही काफी हुआ जा रहा है; देह के कारण ही काफी हुआ जा रहा है। अब और तो क्या सताना! तो अक्सर ऐसा हो जाता है, कुरूप व्यक्ति भीतर से सुंदर हो जाते हैं। बाहर से सुंदर व्यक्ति भीतर से कुरूप हो जाते हैं। सुंदर को अकड़ होती है कि तुम नहीं तो कोई और सही! कुरूप को अकड़ नहीं होती; तुम ही सब कुछ हो! पर स्त्री थी तो कुरूप ही। मुल्ला जब उसे घर ले आया, तो मुसलमानों में पूछते हैं; स्त्री घर आकर पूछती है कि मैं अपना बुर्का किसके सामने उठा सकती हूं? किसके सामने नहीं उठा सकती हूं? किसके सामने आशा है? तो पता है, मुल्ला ने क्या कहा! मुल्ला ने कहा कि मुझे छोड़कर तू सबके सामने अपना बुर्का उठा सकती है। और यह कहानी आफिस का समय होने के कारण बस में अत्यधिक भीड़ थी। सामने की सीट पर एक नव—विवाहित जोड़ा बैठा था, जिसके सामने एक भद्र पुरुष रॉड पकड़कर खड़े —खड़े सफर कर रहे थे। एक जगह बस के अचानक झटके से रुकने से भद्र महोदय खुद को सम्हाल न पाए और नव—वधु की गोद में गिर पड़े। फिर क्या था, वह महाशय का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। लगे उन महाशय को बुरा— भला कहने। लोगों ने समझाने की कोशिश की कि इस हालत में कोई भी गिर सकता था। किंतु वर महाशय तो और भी ज्यादा भड़क उठे। बोले. बस, बस, आप लोग चुप रहिए। अगर आपकी पत्नी की गोद में कोई बैठे तो क्या आप इसे सहन करेंगे? मुल्ला नसरुद्दीन यह सब बैठा हुआ सुन रहा था। वह उठकर आया। उसने कहा. यह रहा मेरा कार्ड। मेरा नाम मुल्ला नसरुद्दीन है। आप इस पते पर किसी भी समय आ सकते हैं और जितनी देर चाहें मेरी पत्नी की गोद में बैठ सकते हैं। अब पत्नी कुरूप है, तो यहां सुंदर और है क्या! इस संसार में सभी तो कुरूप है। इस संसार में हर चीज तो सड़ जाती है। इस संसार में हर चीज तो कुरूप हो जाती है। सुंदरतम स्त्री भी एक दिन कुरूप हो जाती है। और जवान से जवान आदमी भी एक दिन मुर्झाता है और का हो जाता है। सुंदर से सुंदर देह भी तो एक दिन चिता पर चढ़ा देनी पड़ेगी। करोगे क्या! यहां सुंदर है क्या? इस जगत की असारता को ठीक से पहचानो। इस जगत की व्यर्थता को ठीक से पहचानो। ताकि इसकी व्यर्थता को देखकर तुम भीतर की सीढ़ियां उतरने लगो। सौंदर्य भीतर है, बाहर नहीं। सौंदर्य स्वयं में है। और जिस दिन तुम्हारे भीतर सौंदर्य उगेगा, उस दिन सब सुंदर हो जाता है। तुम जैसे, वैसी दुनिया हो जाती है। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। तुम सुंदर हो जाओ। पत्नी को सुंदर करने की फिकर छोड़ो। तुम सुंदर हो जाओ। और तुम्हारे सुंदर होने का अर्थ, कोई प्रसाधन के साधनों से नहीं; ध्यान सुंदर करता है। ध्यान ही सत्यं शिवं सुंदरम् का द्वार बनता है। जैसे —जैसे ध्यान गहरा होगा. वैसे—वैसे तुम पाओगे : तुम्हारे भीतर एक अपूर्व सौंदर्य लहरें ले रहा है। इतना सौंदर्य कि तुम उंडेल दो, तो सारा जगत सुंदर हो जाए। मुझसे तुम उस सौंदर्य की बात पूछो। इस तरह के व्यर्थ प्रश्न न लाओ, तो अच्छा है। ओशो 🎻🎻

*जगत प्रतिदान है* एक सूफी कहानी। एक चोर रात के समय किसी मकान की खिड़की में से भीतर जाने लगा, कि खिड़की की चौखट टूट जाने से गिर पड़ा और उसकी टांग टूट गयी। अगले दिन उसने अदालत में जाकर अपनी टांग के टूटने का दोष उस मकान के मालिक पर लगाया। मकान-मालिक को बुलाकर पूछा गया, तो उसने अपनी सफाई में कहा: इसका जिम्मेदार वह बढ़ई है, जिसने कि खिड़की बनायी। बढ़ई को बुलाया गया, तो उसने कहा कि मकान बनाने वाले ठेकेदार ने दीवार का खिड़की वाला हिस्सा मजबूती से नहीं बनाया था।      ठेकेदार ने अपनी सफाई में कहा: मुझसे यह गलती एक औरत की वजह से हुई, जो वहां से गुजर रही थी। उसने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींच लिया था। जब उस औरत को अदालत में पेश किया गया, तो उसने कहा: उस समय मैंने बहुत बढ़िया लिबास पहन रखा था। आमतौर पर मेरी तरफ किसी की नजर उठती नहीं है। सो, कसूर उस लिबास का है जो इतना बढ़िया सिला हुआ था। न्यायाधीश ने कहा: तब तो उसे सीने वाले दर्जी को बुलाया जाये, वही मुजरिम है। उसे अदालत में हाजिर किया जाये। वह दर्जी उस स्त्री का पति निकला और वही वह चोर भी था जिसकी टांग टूटी थी। *यह इस जगत का सर्वाधिक आश्चर्यजनक नियम है: जो गङ्ढे तुम दूसरों के लिये खोदते हो, उनमें स्वयं गिरना पड़ता है। फिर तुमने चाहे गङ्ढे जानकर खोदे हों चाहे अनजाने खोदे हों। जो कांटे तुम दूसरों के लिये बोते हो, वे तुम्हारे ही पैरों में छिदेंगे। अगर फूलों पर चलना हो तो सभी के रास्तों पर फूल बिखराना, क्योंकि तुम्हें वही मिलेगा जो तुम दोगे।* _*वही मिलेगा जो दोगे। जिंदगी दोगे, जिंदगी मिलेगी। जिंदगी लोगे, जिंदगी छिन जायेगी।* जगत प्रतिध्वनि करता है। गीत गाओ, चारों तरफ से गीत तुम पर बरस जायेंगे। गालियां दो, चारों तरफ से गालियां तुम पर बरस जायेंगी। जो चाहो लो। मगर शर्त यही है कि वही दोगे तो मिलेगा। जगत प्रतिदान है। तुम दान करो। जगत प्रतिदान है। हजार गुना होकर लौट आता है सब।_ यह कहानी तो एक व्यंग्य है, एक मजाक है। मगर जिंदगी ऐसी ही है। अगर इस नियम को तुम पहचानकर चलने लगे तो बस तुम्हारा रास्ता स्वर्ग की तरफ मुड़ गया। अगर इस नियम को न पहचाना, न समझे और इसके विपरीत चलते रहे तो नर्क ही तुम्हारी मंजिल है। सहज योग  ओशो  🌸🌹🌸🌹🌸🌹🌸

ध्यान से पढे जरूर* *अदभूत बाते है जाने* *अद्भुत* *सगाई के दौरान लड़की- लड़का दोनों एक दूसरे की अनामिका उंगली में अंगूठी पहनाते हैं ।* *ये अंगूठी अनामिका में ही क्यूँ पहनी जाती है ?* *एक सुंदर प्रयोग बताता हूँ .....* *आप भी कर के देखें ओर समझे......* . *बुद्धिजीवियों और वेदों के अनुसार हमारे हाथ की दसों उंगलियां एक कुटुम्ब हैं ।* . . *हाथ के अंगूठे हमारे माता-पिता का प्रतीक हैं।* . . *अंगूठे के पास वाली उंगली (तर्जनी) हमारे भाई-बहन के प्रतीक।* . . *बीच की उंगली (मध्यमा) हम खुद* . . *चौथी अनामिका...* *मतलब हमारा जोड़ीदार/जीवन साथी।* . . *और अंतिम सबसे छोटी उंगली (करंगली)* *हमारे बच्चे।* . . *ये हो गया कुटुंब।* *अब देखते हैं कुटुंब के लोगों से हमारे संबंध कैसे ईश्वर ने स्थापित किये हैं।* . . *अब फोन को एक ओर रख दोनों हाथ प्रणाम मुद्रा में जोड़ें।* . . *बीच की दोनों उंगली (जो हम खुद हैं) को अंदर की ओर fold कर हथेली से लगा लें।* *अब दोनो अंगूठे एक दूसरे से दूर करे वो हो जाएंगे।* . . *कारण माता-पिता का साथ हमें जन्मभर नही मिलता, कभी न कभी वो हमें छोड़ कर जाते हैं । फिर दोनों अंगूठों को जोड़ लें।* . . *अब अंगूठे को छोड़ उसके पास वाली तर्जनी उंगली को खोलें* *वो भी खुलेगी,* *कारण भाई-बहन का अपना परिवार है , उनका खुद का अपना जीवन है, वो भी हमारे साथ जीवन भर नहीं रहने वाले हैं।* . . *अब वो तर्जनी उंगलियां जोड़ हाथ के आखरिवाली सबसे छोटी उंगली को आपस मे खोलें।* . . *वो भी खुलेंगी, कारण आपके बच्चे बड़े होने पर घोसला छोड़ उड़ान भरने ही वाले हैं ।* . *छोटी उंगलियों को अब जोड़ लें।* . . *अब छोटी वाली ऊंगली के बगल वाली अनामिका, जिसमें सगाई की अंगूठी पहनते हैं, को एक दूजे से दूर करे......* . . *आश्चर्य होगा;* *पर वो दूर नही होगी। कारण जोड़ीदार, मतलब पति-पत्नी, जीवनभर एक साथ रहने वाले होते हैं । सुख और दुःख में एक दूजे के जीवनसाथी.....* *"ये आयुष्य का सुंदर अर्थ* *अनामिका सिवाय सब व्यर्थ "* 🌹🌹🌹🙏🌹🌹🌹

Sunday, April 7, 2019

मृत्यु से मित्रता* एक चतुर व्यक्ति को काल से बहुत डर लगता था। एक दिन उसे चतुराई सूझी और काल को अपना मित्र बना लिया। उससे कहा - मित्र, तुम किसी को भी नहीं छोड़ते हो, किसी दिन मुझे भी गाल में धर लोगो। काल ने कहा-सृष्टि नाटक का यह शाश्वत नियम है इस लिए मैं मजबूर हूँ। आप मेरे मित्र है मैं आपकी जितनी *सेवा* कर सकता हूँ करूँगा ही, आप मुझ से क्या आशा रखते है बताइये। चतुर व्यक्ति ने कहा-मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप मुझे लेने पधारने के कुछ दिन पहले एक पत्र अवश्य लिख देना ताकि मैं अपने बाल- बच्चो को कारोबार की सभी बाते अच्छी तरह से समझा दूँ और स्वयं भी *भगवान* ( के भजन में लग जाऊँ। काल ने प्रेम से कहा-यह कौन सी बड़ी बात है मैं एक नहीं आपको चार पत्र भेज दूँगा। मनुष्य बड़ा प्रसन्न हुआ सोचने लगा कि आज से मेरे मन से काल का भय भी निकल गया, मैं जाने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण करके जाऊँगा तो देवता भी मेरा स्वागत करेंगे। दिन बीतते गये आखिर मृत्यु की घड़ी आ पहुँची। काल अपने दूतों सहित उस चतुर व्यक्ति के समीप आकर कहने लगा-आपके नाम का वारंट मेरे पास है मित्र चलिए, मैं सत्यता और दृढ़तापूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए एक क्षण भी तुम्हें और यहाँ नहीं छोड़ूँगा। मनुष्य के माथे पर बल पड़ गये, भृकुटी तन गयी और कहने लगा धिक्कार है तुम्हारे जैसे मित्रों का मेरे साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ? तुमने मुझे वचन दिया था कि लेने आने से पहले पत्र लिखूँगा। मुझे बड़ा दुःख है कि तुम बिना किसी सूचना के अचानक दूतों सहित मेरे ऊपर चढ़ आए। मित्रता तो दूर रही तुमने अपने वचनों को भी नहीं निभाया। काल हँसा और बोला-मित्र इतना झूठ तो न बोलो। मेरे सामने ही मुझे झूठा सिद्ध कर रहे हो। मैंने आपको एक नहीं चार पत्र भेजें। आपने एक भी उत्तर नहीं दिया। मनुष्य ने चौक कर पूछा-कौन से पत्र ? कोई प्रमाण है ? मुझे पत्र प्राप्त होने की कोई डाक रसीद आपके पास है तो दिखाओ। काल ने कहा - मित्र, घबराओ नहीं। मेरे चारों पत्र इस समय आपके पास मौजूद है। मेरा पहला पत्र आपके सिर पर चढ़कर बोला, आपके काले सुन्दर बालों को पकड़ कर उन्हें सफ़ेद कर दिया और यह भी कि सावधान हो जाओ, जो करना है कर डालो। नाम, बड़ाई और धन-संग्रह के झंझटो को छोड़कर भजन में लग जाओ पर मेरे पत्र का आपके ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। बनावटी रंग लगा कर आपने अपने बालों को फिर से काला कर लिया और पुनः जवान बनने के सपनों में खो गए। आज तक मेरे श्वेत अक्षर आपके सिर पर लिखे हुए है। कुछ दिन बाद मैंने दूसरा पत्र आपके नेत्रों के प्रति भेजा। नेत्रों की ज्योति मंद होने लगी। फिर भी आँखों पर मोटे शीशे चढ़ा कर आप जगत को देखने का प्रयत्न करने लगे। दो मिनिट भी संसार की ओर से आँखे बंद करके, ज्योतिस्वरूप *प्रभु* का ध्यान, मन में नहीं किया। इतने पर भी सावधान नहीं हुए तो मुझे आपकी दीनदशा पर बहुत तरस आया और मित्रता के नाते मैंने तीसरा पत्र भी भेजा। इस पत्र ने आपके दाँतो को छुआ, हिलाया और तोड़ दिया। और अपने इस पत्र का भी जवाब न देखकर और ही नकली दाँत लगवाये और जबरदस्ती संसार के भौतिक पदार्थों का स्वाद लेने लगे। मुझे बहुत दुःख हुआ कि मैं सदा इसके भले की सोचता हूँ और यह हर बात एक नया, बनावटी रास्ता अपना ने को तैयार रहता है। अपने अन्तिम पत्र के रूप में मैंने रोग-क्लेश तथा पीड़ाओ को भेजा परन्तु आपने अहंकार वश सब अनसुना कर दिया। जब मनुष्य ने काल के भेजे हुए पत्रों को समझा तो फुट-फुट कर रोने लगा और अपने विपरीत कर्मो पर पश्चाताप करने लगा। उसने स्वीकार किया कि मैंने गफलत में शुभ चेतावनी भरे इन पत्रों को नहीं पढ़ा, मैं सदा यही सोचता रहा कि कल से *भगवान* का *भजन* करूँगा। अपनी कमाई अच्छे शुभ कार्यो में लगाऊँगा, पर वह कल नहीं आया। काल ने कहा-आज तक तुमने जो कुछ भी किया, राग-द्वेष, स्वार्थ और भोगों के लिए किया। जान-बूझकर ईश्वरीय नियमों को जो तोड़ता है, वह अक्षम्य है। मनुष्य को जब बातों से काम बनते हुए नज़र नहीं आया तो उसने काल को करोड़ों की सम्पत्ति का लोभ दिखाया। काल ने हँसकर कहा-यह मेरे लिए धूल है। लोभ संसारी लोगो को वश में कर सकता है, मुझे नहीं। यदि तुम मुझे लुभाना ही चाहते थे तो सच्चाई और शुभ कर्मो का धन संग्रह करते। काल ने जब मनुष्य की एक भी बात नहीं सुनी तो वह हाय-हाय करके रोने लगा और सभी सम्बन्धियों को पुकारा परन्तु काल ने उसके प्राण पकड़ लिए और चल पड़ा अपने गन्तव्य की ओर। भावार्थ-समय के साथ उम्र की निशानियों को देख कर तो कम से कम हमें *प्रभु* की याद में साधना ध्यान में रहने का अभ्यास करना चाहिए और अभी तो कलयुग का समय है इस में तो हर एक को चाहे छोटा हो या बड़ा सब को *प्रभु* की याद में रहकर ही साधना ध्यान और कर्म करना चाहिए। 🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹

भगवान् की लाठी* एक बुजुर्ग दरिया के किनारे पर जा रहे थे। एक जगह देखा कि दरिया की सतह से एक कछुआ निकला और पानी के किनारे पर आ गया। उसी किनारे से एक बड़े ही जहरीले बिच्छु ने दरिया के अन्दर छलांग लगाई और कछुए की पीठ पर सवार हो गया। कछुए ने तैरना शुरू कर दिया। वह बुजुर्ग बड़े हैरान हुए। उन्होंने उस कछुए का पीछा करने की ठान ली। इसलिए दरिया में तैर कर उस कछुए का पीछा किया। वह कछुआ दरिया के दूसरे किनारे पर जाकर रूक गया। और बिच्छू उसकी पीठ से छलांग लगाकर दूसरे किनारे पर चढ़ गया और आगे चलना शुरू कर दिया। वह बुजुर्ग भी उसके पीछे चलते रहे। आगे जाकर देखा कि जिस तरफ बिच्छू जा रहा था उसके रास्ते में एक भगवान् का भक्त ध्यान साधना में आँखे बन्द कर भगवान् की भक्ति कर रहा था। उस बुजुर्ग ने सोचा कि अगर यह बिच्छू उस भक्त को काटना चाहेगा तो मैं करीब पहुँचने से पहले ही उसे अपनी लाठी से मार डालूँगा। लेकिन वह कुछ कदम आगे बढे ही थे कि उन्होंने देखा दूसरी तरफ से एक काला जहरीला साँप तेजी से उस भक्त को डसने के लिए आगे बढ़ रहा था। इतने में बिच्छू भी वहाँ पहुँच गया। उस बिच्छू ने उसी समय सांप डंक के ऊपर डंक मार दिया, जिसकी वजह से बिच्छू का जहर सांप के जिस्म में दाखिल हो गया और वह सांप वहीं अचेत हो कर गिर पड़ा था। इसके बाद वह बिच्छू अपने रास्ते पर वापस चला गया। थोड़ी देर बाद जब वह भक्त उठा, तब उस बुजुर्ग ने उसे बताया कि भगवान् ने उसकी रक्षा के लिए कैसे उस कछुवे को दरिया के किनारे लाया, फिर कैसे उस बिच्छु को कछुए की पीठ पर बैठा कर साँप से तेरी रक्षा के लिए भेजा। वह भक्त उस अचेत पड़े सांप को देखकर हैरान रह गया। उसकी आँखों से आँसू निकल आए, और वह आँखें बन्द कर प्रभु को याद कर उनका धन्यवाद करने लगा, *तभी प्रभु ने अपने उस भक्त से कहा, जब वो बुजुर्ग जो तुम्हे जानता तक नही, वो तुम्हारी जान बचाने के लिए लाठी उठा सकता है। और फिर तू तो मेरी भक्ति में लगा हुआ था तो फिर तुझे बचाने के लिये मेरी लाठी तो हमेशा से ही तैयार रहती है...!* 🌻🌹🌻🌹🌻🌹🌻🌹

मृत्यु से मित्रता* एक चतुर व्यक्ति को काल से बहुत डर लगता था। एक दिन उसे चतुराई सूझी और काल को अपना मित्र बना लिया। उससे कहा - मित्र, तुम किसी को भी नहीं छोड़ते हो, किसी दिन मुझे भी गाल में धर लोगो। काल ने कहा-सृष्टि नाटक का यह शाश्वत नियम है इस लिए मैं मजबूर हूँ। आप मेरे मित्र है मैं आपकी जितनी *सेवा* कर सकता हूँ करूँगा ही, आप मुझ से क्या आशा रखते है बताइये। चतुर व्यक्ति ने कहा-मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप मुझे लेने पधारने के कुछ दिन पहले एक पत्र अवश्य लिख देना ताकि मैं अपने बाल- बच्चो को कारोबार की सभी बाते अच्छी तरह से समझा दूँ और स्वयं भी *भगवान* ( के भजन में लग जाऊँ। काल ने प्रेम से कहा-यह कौन सी बड़ी बात है मैं एक नहीं आपको चार पत्र भेज दूँगा। मनुष्य बड़ा प्रसन्न हुआ सोचने लगा कि आज से मेरे मन से काल का भय भी निकल गया, मैं जाने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण करके जाऊँगा तो देवता भी मेरा स्वागत करेंगे। दिन बीतते गये आखिर मृत्यु की घड़ी आ पहुँची। काल अपने दूतों सहित उस चतुर व्यक्ति के समीप आकर कहने लगा-आपके नाम का वारंट मेरे पास है मित्र चलिए, मैं सत्यता और दृढ़तापूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए एक क्षण भी तुम्हें और यहाँ नहीं छोड़ूँगा। मनुष्य के माथे पर बल पड़ गये, भृकुटी तन गयी और कहने लगा धिक्कार है तुम्हारे जैसे मित्रों का मेरे साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ? तुमने मुझे वचन दिया था कि लेने आने से पहले पत्र लिखूँगा। मुझे बड़ा दुःख है कि तुम बिना किसी सूचना के अचानक दूतों सहित मेरे ऊपर चढ़ आए। मित्रता तो दूर रही तुमने अपने वचनों को भी नहीं निभाया। काल हँसा और बोला-मित्र इतना झूठ तो न बोलो। मेरे सामने ही मुझे झूठा सिद्ध कर रहे हो। मैंने आपको एक नहीं चार पत्र भेजें। आपने एक भी उत्तर नहीं दिया। मनुष्य ने चौक कर पूछा-कौन से पत्र ? कोई प्रमाण है ? मुझे पत्र प्राप्त होने की कोई डाक रसीद आपके पास है तो दिखाओ। काल ने कहा - मित्र, घबराओ नहीं। मेरे चारों पत्र इस समय आपके पास मौजूद है। मेरा पहला पत्र आपके सिर पर चढ़कर बोला, आपके काले सुन्दर बालों को पकड़ कर उन्हें सफ़ेद कर दिया और यह भी कि सावधान हो जाओ, जो करना है कर डालो। नाम, बड़ाई और धन-संग्रह के झंझटो को छोड़कर भजन में लग जाओ पर मेरे पत्र का आपके ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। बनावटी रंग लगा कर आपने अपने बालों को फिर से काला कर लिया और पुनः जवान बनने के सपनों में खो गए। आज तक मेरे श्वेत अक्षर आपके सिर पर लिखे हुए है। कुछ दिन बाद मैंने दूसरा पत्र आपके नेत्रों के प्रति भेजा। नेत्रों की ज्योति मंद होने लगी। फिर भी आँखों पर मोटे शीशे चढ़ा कर आप जगत को देखने का प्रयत्न करने लगे। दो मिनिट भी संसार की ओर से आँखे बंद करके, ज्योतिस्वरूप *प्रभु* का ध्यान, मन में नहीं किया। इतने पर भी सावधान नहीं हुए तो मुझे आपकी दीनदशा पर बहुत तरस आया और मित्रता के नाते मैंने तीसरा पत्र भी भेजा। इस पत्र ने आपके दाँतो को छुआ, हिलाया और तोड़ दिया। और अपने इस पत्र का भी जवाब न देखकर और ही नकली दाँत लगवाये और जबरदस्ती संसार के भौतिक पदार्थों का स्वाद लेने लगे। मुझे बहुत दुःख हुआ कि मैं सदा इसके भले की सोचता हूँ और यह हर बात एक नया, बनावटी रास्ता अपना ने को तैयार रहता है। अपने अन्तिम पत्र के रूप में मैंने रोग-क्लेश तथा पीड़ाओ को भेजा परन्तु आपने अहंकार वश सब अनसुना कर दिया। जब मनुष्य ने काल के भेजे हुए पत्रों को समझा तो फुट-फुट कर रोने लगा और अपने विपरीत कर्मो पर पश्चाताप करने लगा। उसने स्वीकार किया कि मैंने गफलत में शुभ चेतावनी भरे इन पत्रों को नहीं पढ़ा, मैं सदा यही सोचता रहा कि कल से *भगवान* का *भजन* करूँगा। अपनी कमाई अच्छे शुभ कार्यो में लगाऊँगा, पर वह कल नहीं आया। काल ने कहा-आज तक तुमने जो कुछ भी किया, राग-द्वेष, स्वार्थ और भोगों के लिए किया। जान-बूझकर ईश्वरीय नियमों को जो तोड़ता है, वह अक्षम्य है। मनुष्य को जब बातों से काम बनते हुए नज़र नहीं आया तो उसने काल को करोड़ों की सम्पत्ति का लोभ दिखाया। काल ने हँसकर कहा-यह मेरे लिए धूल है। लोभ संसारी लोगो को वश में कर सकता है, मुझे नहीं। यदि तुम मुझे लुभाना ही चाहते थे तो सच्चाई और शुभ कर्मो का धन संग्रह करते। काल ने जब मनुष्य की एक भी बात नहीं सुनी तो वह हाय-हाय करके रोने लगा और सभी सम्बन्धियों को पुकारा परन्तु काल ने उसके प्राण पकड़ लिए और चल पड़ा अपने गन्तव्य की ओर। भावार्थ-समय के साथ उम्र की निशानियों को देख कर तो कम से कम हमें *प्रभु* की याद में साधना ध्यान में रहने का अभ्यास करना चाहिए और अभी तो कलयुग का समय है इस में तो हर एक को चाहे छोटा हो या बड़ा सब को *प्रभु* की याद में रहकर ही साधना ध्यान और कर्म करना चाहिए। 🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹

मृत्यु से मित्रता* एक चतुर व्यक्ति को काल से बहुत डर लगता था। एक दिन उसे चतुराई सूझी और काल को अपना मित्र बना लिया। उससे कहा - मित्र, तुम किसी को भी नहीं छोड़ते हो, किसी दिन मुझे भी गाल में धर लोगो। काल ने कहा-सृष्टि नाटक का यह शाश्वत नियम है इस लिए मैं मजबूर हूँ। आप मेरे मित्र है मैं आपकी जितनी *सेवा* कर सकता हूँ करूँगा ही, आप मुझ से क्या आशा रखते है बताइये। चतुर व्यक्ति ने कहा-मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप मुझे लेने पधारने के कुछ दिन पहले एक पत्र अवश्य लिख देना ताकि मैं अपने बाल- बच्चो को कारोबार की सभी बाते अच्छी तरह से समझा दूँ और स्वयं भी *भगवान* ( के भजन में लग जाऊँ। काल ने प्रेम से कहा-यह कौन सी बड़ी बात है मैं एक नहीं आपको चार पत्र भेज दूँगा। मनुष्य बड़ा प्रसन्न हुआ सोचने लगा कि आज से मेरे मन से काल का भय भी निकल गया, मैं जाने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण करके जाऊँगा तो देवता भी मेरा स्वागत करेंगे। दिन बीतते गये आखिर मृत्यु की घड़ी आ पहुँची। काल अपने दूतों सहित उस चतुर व्यक्ति के समीप आकर कहने लगा-आपके नाम का वारंट मेरे पास है मित्र चलिए, मैं सत्यता और दृढ़तापूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए एक क्षण भी तुम्हें और यहाँ नहीं छोड़ूँगा। मनुष्य के माथे पर बल पड़ गये, भृकुटी तन गयी और कहने लगा धिक्कार है तुम्हारे जैसे मित्रों का मेरे साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ? तुमने मुझे वचन दिया था कि लेने आने से पहले पत्र लिखूँगा। मुझे बड़ा दुःख है कि तुम बिना किसी सूचना के अचानक दूतों सहित मेरे ऊपर चढ़ आए। मित्रता तो दूर रही तुमने अपने वचनों को भी नहीं निभाया। काल हँसा और बोला-मित्र इतना झूठ तो न बोलो। मेरे सामने ही मुझे झूठा सिद्ध कर रहे हो। मैंने आपको एक नहीं चार पत्र भेजें। आपने एक भी उत्तर नहीं दिया। मनुष्य ने चौक कर पूछा-कौन से पत्र ? कोई प्रमाण है ? मुझे पत्र प्राप्त होने की कोई डाक रसीद आपके पास है तो दिखाओ। काल ने कहा - मित्र, घबराओ नहीं। मेरे चारों पत्र इस समय आपके पास मौजूद है। मेरा पहला पत्र आपके सिर पर चढ़कर बोला, आपके काले सुन्दर बालों को पकड़ कर उन्हें सफ़ेद कर दिया और यह भी कि सावधान हो जाओ, जो करना है कर डालो। नाम, बड़ाई और धन-संग्रह के झंझटो को छोड़कर भजन में लग जाओ पर मेरे पत्र का आपके ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। बनावटी रंग लगा कर आपने अपने बालों को फिर से काला कर लिया और पुनः जवान बनने के सपनों में खो गए। आज तक मेरे श्वेत अक्षर आपके सिर पर लिखे हुए है। कुछ दिन बाद मैंने दूसरा पत्र आपके नेत्रों के प्रति भेजा। नेत्रों की ज्योति मंद होने लगी। फिर भी आँखों पर मोटे शीशे चढ़ा कर आप जगत को देखने का प्रयत्न करने लगे। दो मिनिट भी संसार की ओर से आँखे बंद करके, ज्योतिस्वरूप *प्रभु* का ध्यान, मन में नहीं किया। इतने पर भी सावधान नहीं हुए तो मुझे आपकी दीनदशा पर बहुत तरस आया और मित्रता के नाते मैंने तीसरा पत्र भी भेजा। इस पत्र ने आपके दाँतो को छुआ, हिलाया और तोड़ दिया। और अपने इस पत्र का भी जवाब न देखकर और ही नकली दाँत लगवाये और जबरदस्ती संसार के भौतिक पदार्थों का स्वाद लेने लगे। मुझे बहुत दुःख हुआ कि मैं सदा इसके भले की सोचता हूँ और यह हर बात एक नया, बनावटी रास्ता अपना ने को तैयार रहता है। अपने अन्तिम पत्र के रूप में मैंने रोग-क्लेश तथा पीड़ाओ को भेजा परन्तु आपने अहंकार वश सब अनसुना कर दिया। जब मनुष्य ने काल के भेजे हुए पत्रों को समझा तो फुट-फुट कर रोने लगा और अपने विपरीत कर्मो पर पश्चाताप करने लगा। उसने स्वीकार किया कि मैंने गफलत में शुभ चेतावनी भरे इन पत्रों को नहीं पढ़ा, मैं सदा यही सोचता रहा कि कल से *भगवान* का *भजन* करूँगा। अपनी कमाई अच्छे शुभ कार्यो में लगाऊँगा, पर वह कल नहीं आया। काल ने कहा-आज तक तुमने जो कुछ भी किया, राग-द्वेष, स्वार्थ और भोगों के लिए किया। जान-बूझकर ईश्वरीय नियमों को जो तोड़ता है, वह अक्षम्य है। मनुष्य को जब बातों से काम बनते हुए नज़र नहीं आया तो उसने काल को करोड़ों की सम्पत्ति का लोभ दिखाया। काल ने हँसकर कहा-यह मेरे लिए धूल है। लोभ संसारी लोगो को वश में कर सकता है, मुझे नहीं। यदि तुम मुझे लुभाना ही चाहते थे तो सच्चाई और शुभ कर्मो का धन संग्रह करते। काल ने जब मनुष्य की एक भी बात नहीं सुनी तो वह हाय-हाय करके रोने लगा और सभी सम्बन्धियों को पुकारा परन्तु काल ने उसके प्राण पकड़ लिए और चल पड़ा अपने गन्तव्य की ओर। भावार्थ-समय के साथ उम्र की निशानियों को देख कर तो कम से कम हमें *प्रभु* की याद में साधना ध्यान में रहने का अभ्यास करना चाहिए और अभी तो कलयुग का समय है इस में तो हर एक को चाहे छोटा हो या बड़ा सब को *प्रभु* की याद में रहकर ही साधना ध्यान और कर्म करना चाहिए। 🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹

🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹 *👉🏿मृत्यु से मित्रता* एक चतुर व्यक्ति को काल से बहुत डर लगता था। एक दिन उसे चतुराई सूझी और काल को अपना मित्र बना लिया। उससे कहा - मित्र, तुम किसी को भी नहीं छोड़ते हो, किसी दिन मुझे भी गाल में धर लोगो। काल ने कहा-सृष्टि नाटक का यह शाश्वत नियम है इस लिए मैं मजबूर हूँ। आप मेरे मित्र है मैं आपकी जितनी *सेवा* कर सकता हूँ करूँगा ही, आप मुझ से क्या आशा रखते है बताइये। चतुर व्यक्ति ने कहा-मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप मुझे लेने पधारने के कुछ दिन पहले एक पत्र अवश्य लिख देना ताकि मैं अपने बाल- बच्चो को कारोबार की सभी बाते अच्छी तरह से समझा दूँ और स्वयं भी *भगवान* ( के भजन में लग जाऊँ। काल ने प्रेम से कहा-यह कौन सी बड़ी बात है मैं एक नहीं आपको चार पत्र भेज दूँगा। मनुष्य बड़ा प्रसन्न हुआ सोचने लगा कि आज से मेरे मन से काल का भय भी निकल गया, मैं जाने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण करके जाऊँगा तो देवता भी मेरा स्वागत करेंगे। दिन बीतते गये आखिर मृत्यु की घड़ी आ पहुँची। काल अपने दूतों सहित उस चतुर व्यक्ति के समीप आकर कहने लगा-आपके नाम का वारंट मेरे पास है मित्र चलिए, मैं सत्यता और दृढ़तापूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए एक क्षण भी तुम्हें और यहाँ नहीं छोड़ूँगा। मनुष्य के माथे पर बल पड़ गये, भृकुटी तन गयी और कहने लगा धिक्कार है तुम्हारे जैसे मित्रों का मेरे साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ? तुमने मुझे वचन दिया था कि लेने आने से पहले पत्र लिखूँगा। मुझे बड़ा दुःख है कि तुम बिना किसी सूचना के अचानक दूतों सहित मेरे ऊपर चढ़ आए। मित्रता तो दूर रही तुमने अपने वचनों को भी नहीं निभाया। काल हँसा और बोला-मित्र इतना झूठ तो न बोलो। मेरे सामने ही मुझे झूठा सिद्ध कर रहे हो। मैंने आपको एक नहीं चार पत्र भेजें। आपने एक भी उत्तर नहीं दिया। मनुष्य ने चौक कर पूछा-कौन से पत्र ? कोई प्रमाण है ? मुझे पत्र प्राप्त होने की कोई डाक रसीद आपके पास है तो दिखाओ। काल ने कहा - मित्र, घबराओ नहीं। मेरे चारों पत्र इस समय आपके पास मौजूद है। मेरा पहला पत्र आपके सिर पर चढ़कर बोला, आपके काले सुन्दर बालों को पकड़ कर उन्हें सफ़ेद कर दिया और यह भी कि सावधान हो जाओ, जो करना है कर डालो। नाम, बड़ाई और धन-संग्रह के झंझटो को छोड़कर भजन में लग जाओ पर मेरे पत्र का आपके ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। बनावटी रंग लगा कर आपने अपने बालों को फिर से काला कर लिया और पुनः जवान बनने के सपनों में खो गए। आज तक मेरे श्वेत अक्षर आपके सिर पर लिखे हुए है। कुछ दिन बाद मैंने दूसरा पत्र आपके नेत्रों के प्रति भेजा। नेत्रों की ज्योति मंद होने लगी। फिर भी आँखों पर मोटे शीशे चढ़ा कर आप जगत को देखने का प्रयत्न करने लगे। दो मिनिट भी संसार की ओर से आँखे बंद करके, ज्योतिस्वरूप *प्रभु* का ध्यान, मन में नहीं किया। इतने पर भी सावधान नहीं हुए तो मुझे आपकी दीनदशा पर बहुत तरस आया और मित्रता के नाते मैंने तीसरा पत्र भी भेजा। इस पत्र ने आपके दाँतो को छुआ, हिलाया और तोड़ दिया। और अपने इस पत्र का भी जवाब न देखकर और ही नकली दाँत लगवाये और जबरदस्ती संसार के भौतिक पदार्थों का स्वाद लेने लगे। मुझे बहुत दुःख हुआ कि मैं सदा इसके भले की सोचता हूँ और यह हर बात एक नया, बनावटी रास्ता अपना ने को तैयार रहता है। अपने अन्तिम पत्र के रूप में मैंने रोग-क्लेश तथा पीड़ाओ को भेजा परन्तु आपने अहंकार वश सब अनसुना कर दिया। जब मनुष्य ने काल के भेजे हुए पत्रों को समझा तो फुट-फुट कर रोने लगा और अपने विपरीत कर्मो पर पश्चाताप करने लगा। उसने स्वीकार किया कि मैंने गफलत में शुभ चेतावनी भरे इन पत्रों को नहीं पढ़ा, मैं सदा यही सोचता रहा कि कल से *भगवान* का *भजन* करूँगा। अपनी कमाई अच्छे शुभ कार्यो में लगाऊँगा, पर वह कल नहीं आया। काल ने कहा-आज तक तुमने जो कुछ भी किया, राग-द्वेष, स्वार्थ और भोगों के लिए किया। जान-बूझकर ईश्वरीय नियमों को जो तोड़ता है, वह अक्षम्य है। मनुष्य को जब बातों से काम बनते हुए नज़र नहीं आया तो उसने काल को करोड़ों की सम्पत्ति का लोभ दिखाया। काल ने हँसकर कहा-यह मेरे लिए धूल है। लोभ संसारी लोगो को वश में कर सकता है, मुझे नहीं। यदि तुम मुझे लुभाना ही चाहते थे तो सच्चाई और शुभ कर्मो का धन संग्रह करते। काल ने जब मनुष्य की एक भी बात नहीं सुनी तो वह हाय-हाय करके रोने लगा और सभी सम्बन्धियों को पुकारा परन्तु काल ने उसके प्राण पकड़ लिए और चल पड़ा अपने गन्तव्य की ओर। भावार्थ-समय के साथ उम्र की निशानियों को देख कर तो कम से कम हमें *प्रभु* की याद में साधना ध्यान में रहने का अभ्यास करना चाहिए और अभी तो कलयुग का समय है इस में तो हर एक को चाहे छोटा हो या बड़ा सब को *प्रभु* की याद में रहकर ही साधना ध्यान और कर्म करना चाहिए। 🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹🌺🌹

~मशहूर फिल्म कलाकार आशुतोष राणा की यह पोस्ट किसी ग्रुप से होती हुई मेरे पास तक पहुंची हे , अपने बच्चों की खातिर समय निकाल कर जरूर पढियेगा.... आज मेरे पूज्य पिताजी का जन्मदिन है सो उनको स्मरण करते हुए एक घटना साँझा कर रहा हूँ। बात सत्तर के दशक की है जब हमारे पूज्य पिताजी ने हमारे बड़े भाई मदनमोहन जो राबर्ट्सन कॉलेज जबलपुर से MSC कर रहे थे की सलाह पर हम ३ भाइयों को बेहतर शिक्षा के लिए गाडरवारा के कस्बाई विद्यालय से उठाकर जबलपुर शहर के क्राइस्टचर्च स्कूल में दाख़िला करा दिया। मध्य प्रदेश के महाकौशल अंचल में क्राइस्टचर्च उस समय अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में अपने शीर्ष पर था। पूज्य बाबूजी व माँ हम तीनों भाइयों ( नंदकुमार, जयंत, व मैं आशुतोष ) का क्राइस्टचर्च में दाख़िला करा हमें हॉस्टल में छोड़ के अगले रविवार को पुनः मिलने का आश्वासन दे के वापस चले गए। मुझे नहीं पता था की जो इतवार आने वाला है वह मेरे जीवन में सदा के लिए चिन्हित होने वाला है, इतवार का मतलब छुट्टी होता है लेकिन सत्तर के दशक का वह इतवार मेरे जीवन की छुट्टी नहीं "घुट्टी" बन गया। इतवार की सुबह से ही मैं आह्लादित था, ये मेरे जीवन के पहले सात दिन थे जब मैं बिना माँ बाबूजी के अपने घर से बाहर रहा था। मन मिश्रित भावों से भरा हुआ था, हृदय के किसी कोने में माँ,बाबूजी को इम्प्रेस करने का भाव बलवती हो रहा था , यही वो दिन था जब मुझे प्रेम और प्रभाव के बीच का अंतर समझ आया। बच्चे अपने माता पिता से सिर्फ़ प्रेम ही पाना नहीं चाहते वे उन्हें प्रभावित भी करना चाहते हैं। दोपहर ३.३० बजे हम हॉस्टल के विज़िटिंग रूम में आ गए•• ग्रीन ब्लेजर, वाइट पैंट, वाइट शर्ट, ग्रीन एंड वाइट स्ट्राइब वाली टाई और बाटा के ब्लैक नॉटी बॉय शूज़.. ये हमारी स्कूल यूनीफ़ॉर्म थी। हमने विज़िटिंग रूम की खिड़की से स्कूल के कैम्पस में मेन गेट से हमारी मिलेट्री ग्रीन कलर की ओपन फ़ोर्ड जीप को अंदर आते हुए देखा, जिसे मेरे बड़े भाई मोहन जिन्हें पूरा घर भाईजी कहता था ड्राइव कर रहे थे,और माँ बाबूजी बैठे हुए थे। मैं बेहद उत्साहित था मुझे अपने पर पूर्ण विश्वास था की आज इन दोनों को इम्प्रेस कर ही लूँगा। मैंने पुष्टि करने के लिए जयंत भैया जो मुझसे ६ वर्ष बड़े हैं उनसे पूछा मैं कैसा लग रहा हूँ ? वे मुझसे अशर्त प्रेम करते थे मुझे लेके प्रोटेक्टिव भी थे बोले शानदार लग रहे हो नंद भैया ने उनकी बात का अनुमोदन कर मेरे हौसले को और बढ़ा दिया। जीप रुकी.. उलटे पल्ले की गोल्डन ऑरेंज साड़ी में माँ और झक्क सफ़ेद धोती कुर्ता गांधी टोपी और काली जवाहर बंड़ी में बाबूजी उससे उतरे, हम दौड़ कर उनसे नहीं मिल सकते थे ये स्कूल के नियमों के ख़िलाफ़ था, सो मीटिंग हॉल में जैसे सैनिक विश्राम की मुद्रा में अलर्ट खड़ा रहता है एक लाइन में तीनों भाई खड़े माँ बाबूजी का अपने पास पहुँचने का इंतज़ार करने लगे, जैसे ही वे क़रीब आए, हम तीनों भाइयों ने सम्मिलित स्वर में अपनी जगह पर खड़े खड़े Good evening Mummy. Good evening Babuji. कहा। मैंने देखा good evening सुनके बाबूजी हल्का सा चौंके फिर तुरंत ही उनके चहरे पे हल्की स्मित आई जिसमें बेहद लाड़ था मैं समझ गया की ये प्रभावित हो चुके हैं । मैं जो माँ से लिपटा ही रहता था माँ के क़रीब नहीं जा रहा था ताकि उन्हें पता चले की मैं इंडिपेंडेंट हो गया हूँ .. माँ ने अपनी स्नेहसिक्त मुस्कान से मुझे छुआ मैं माँ से लिपटना चाहता था किंतु जगह पर खड़े खड़े मुस्कुराकर अपने आत्मनिर्भर होने का उन्हें सबूत दिया। माँ ने बाबूजी को देखा और मुस्कुरा दीं, मैं समझ गया की ये प्रभावित हो गईं हैं। माँ, बाबूजी, भाईजी और हम तीन भाई हॉल के एक कोने में बैठ बातें करने लगे हमसे पूरे हफ़्ते का विवरण माँगा गया, और ६.३० बजे के लगभग बाबूजी ने हमसे कहा की अपना सामान पैक करो तुम लोगों को गाडरवारा वापस चलना है वहीं आगे की पढ़ाई होगी•• हमने अचकचा के माँ की तरफ़ देखा माँ बाबूजी के समर्थन में दिखाई दीं। हमारे घर में प्रश्न पूछने की आज़ादी थी घर के नियम के मुताबिक़ छोटों को पहले अपनी बात रखने का अधिकार था, सो नियमानुसार पहला सवाल मैंने दागा और बाबूजी से गाडरवारा वापस ले जाने का कारण पूछा ? उन्होंने कहा रानाजी मैं तुम्हें मात्र अच्छा विद्यार्थी नहीं एक अच्छा व्यक्ति बनाना चाहता हूँ। तुम लोगों को यहाँ नया सीखने भेजा था पुराना भूलने नहीं। कोई नया यदि पुराने को भुला दे तो उस नए की शुभता संदेह के दायरे में आ जाती है, हमारे घर में हर छोटा अपने से बड़े परिजन, परिचित,अपरिचित जो भी उसके सम्पर्क में आता है उसके चरण स्पर्श कर अपना सम्मान निवेदित करता है लेकिन देखा की इस नए वातावरण ने मात्र सात दिनों में ही मेरे बच्चों को परिचित छोड़ो अपने माता पिता से ही चरण स्पर्श की जगह Good evening कहना सिखा दिया। मैं नहीं कहता की इस अभिवादन में सम्मान नहीं है, किंतु चरण स्पर्श करने में सम्मान होता है यह मैं विश्वास से कह सकता हूँ। विद्या व्यक्ति को संवेदनशील बनाने के लिए होती है संवेदनहीन बनाने के लिए नहीं होती। मैंने देखा तुम अपनी माँ से लिपटना चाहते थे लेकिन तुम दूर ही खड़े रहे, विद्या दूर खड़े व्यक्ति के पास जाने का हुनर देती है नाकि अपने से जुड़े हुए से दूर करने का काम करती है। आज मुझे विद्यालय और स्कूल का अंतर समझ आया, व्यक्ति को जो शिक्षा दे वह विद्यालय जो उसे सिर्फ़ साक्षर बनाए वह स्कूल, मैं नहीं चाहता की मेरे बच्चे सिर्फ़ साक्षर हो के डिग्रीयों के बोझ से दब जाएँ मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने उसके बोझ को हल्का करने की महारथ देना चाहता हूँ। मैंने तुम्हें अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए भेजा था आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं। संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा संवेदनशील निरक्षर होना है। इसलिए बिस्तर बाँधो और घर चलो। हम तीनों भाई तुरंत माँ बाबूजी के चरणों में गिर गए उन्होंने हमें उठा कर गले से लगा लिया.. व शुभआशीर्वाद दिया कि किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो.. पूज्य बाबूजी जब भी कभी थकता हूँ या हार की कगार पर खड़ा होता हूँ तो आपका यह आशीर्वाद "किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो" संजीवनी बन नव ऊर्जा का संचार कर हृदय को उत्साह उल्लास से भर देता है । आपको शत् शत् प्रणाम आशुतोष राणा

विधाता* *द्रौपदी के स्वयंवर में जाते वक्त श्री कृष्ण" ने अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि, हे पार्थ तराजू पर पैर संभालकर रखना,संतुलन बराबर रखना, लक्ष्य मछली की आंख पर ही केंद्रित हो उसका खास खयाल रखना, तो अर्जुन ने कहा, "हे प्रभु " सबकुछ अगर मुझे ही करना है, तो फिर आप क्या करोगे, ???* *वासुदेव हंसते हुए बोले, हे पार्थ जो आप से नहीं होगा वह में करुंगा, पार्थ ने कहा प्रभु ऐसा क्या है जो मैं नहीं कर सकता, ???* *वासुदेव फिर हंसे और बोले, जिस अस्थिर, विचलित, हिलते हुए पानी में तुम मछली का निशाना साधोगे , उस विचलित "पानी" को स्थिर "मैं" रखुंगा !!* *कहने का तात्पर्य यह है कि आप चाहे कितने ही निपुण क्यूँ ना हो , कितने ही बुद्धिमान क्यूँ ना हो , कितने ही महान एवं विवेकपूर्ण क्यूँ ना हो , लेकिन आप स्वंय हरेक परिस्थिति के उपर पूर्ण नियंत्रण नहीँ रख सकते .. आप सिर्फ अपना प्रयास कर सकते हो , लेकिन उसकी भी एक सीमा है और जो उस सीमा से आगे की बागडोर संभलता है उसी का नाम "विधाता" है ... और उसी विधाता ने आपकी सारी जिम्मेदारियां ले रखी हैं , लेकिन आप हो कि सारी जिम्मेवारी खुद ही लिए फिरते हो ..सारी दुनिया का बोझ आप अपने सर पे लिए फिरते हो तो इसमे किसी का क्या दोष ??* *हमे सिर्फ अपना कार्य करते रहना चाहिए, भगवान क्या कर सकते हैं या क्या करेंगे, ये गहरा विषय है ! उस विधाता ने इतनी बड़ी दुनियाँ बनाई , विशाल समुद्र बनाया , उसमे रहने वाले विशालकाय जीवों के जीवन की डोर बनाई , उनके दाना पानी की व्यवस्था की , हजारों लाखों टन पानी को समुद्र से उठाकर हजारों मील दूर आवश्कता के स्थान पर बिना किसी साधन के बारिश के रूप में पहुँचाना , एक छोटे से बीज में वृक्ष का विस्तार भर देना , औऱ उसमे किस मौसम में पत्ते गिरेंगे किस मौसम में नये फल फूल आयेंगे ये सब कुछ उस नन्हे से बीज में भर देना , उस विधाता ने चींटी से लेकर विशालकाय हाथी जैसे जीवों का दाना पानी उसके व्यवस्था के हिसाब से निर्माण किया है , उसमे विश्वास रखकर कर्म कर !* *जो तुझे नहीँ दिख रहा है वो उसे दिख रहा है जो कुछ तुझे मिल रहा है वो तेरे "भूतकाल" का फल है औऱ भविष्य तेरे वर्तमान के कर्म के "बीज" पर टिका है !! इसलिए परेशान हैरान मत हो , जो कुछ मिल रहा है वो तेरे द्वारा ही किया हुआ कर्म का फल है , औऱ उस विधि के विधान में सब नियत है ! यहाँ राजा औऱ रंक सब तेरे कर्मों का फल है , उसे किसी को राजा औऱ किसी को रंक बनाके कुछ नहीँ मिलेगा !! वो सब तेरे द्वारा बोए गये बीजों का ही प्रत्यक्ष फल है !!* *वो सदा परम है !! वो तेरे साथ अन्याय नहीँ होने देगा विश्वास रख !!* *वो शुभ कर्मों में तेरे साथ है , बल्कि वो चाहता है कि तू शुभ कर्म कर तो मैं तेरी हर दुविधा हर लूँ !!* *समस्याएँ ना आये ऐसा तो नहीँ होगा लेकिन वो अदृश्य रूप में कली को काँटे के रूप में औऱ काँटे को रूई के रूप में बदल रहा है , वो नहीँ चाहता कि तुझे दुख दे , आखिर उसको क्या मिलेगा इससे ?? मन को थोड़ा स्थिर करके उसमे श्रध्दा रख ...इधर उधर मत भटक .. इंसान औऱ उस विधाता में फर्क पहचान औऱ उसमे हेत लगा !! अत उसमे पूर्ण विश्वास रख औऱ आगे क़दम बढ़ा....* 🌸🍂🌸🍂🌸🍂🌸

~मशहूर फिल्म कलाकार आशुतोष राणा की यह पोस्ट किसी ग्रुप से होती हुई मेरे पास तक पहुंची हे , अपने बच्चों की खातिर समय निकाल कर जरूर पढियेगा.... आज मेरे पूज्य पिताजी का जन्मदिन है सो उनको स्मरण करते हुए एक घटना साँझा कर रहा हूँ। बात सत्तर के दशक की है जब हमारे पूज्य पिताजी ने हमारे बड़े भाई मदनमोहन जो राबर्ट्सन कॉलेज जबलपुर से MSC कर रहे थे की सलाह पर हम ३ भाइयों को बेहतर शिक्षा के लिए गाडरवारा के कस्बाई विद्यालय से उठाकर जबलपुर शहर के क्राइस्टचर्च स्कूल में दाख़िला करा दिया। मध्य प्रदेश के महाकौशल अंचल में क्राइस्टचर्च उस समय अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में अपने शीर्ष पर था। पूज्य बाबूजी व माँ हम तीनों भाइयों ( नंदकुमार, जयंत, व मैं आशुतोष ) का क्राइस्टचर्च में दाख़िला करा हमें हॉस्टल में छोड़ के अगले रविवार को पुनः मिलने का आश्वासन दे के वापस चले गए। मुझे नहीं पता था की जो इतवार आने वाला है वह मेरे जीवन में सदा के लिए चिन्हित होने वाला है, इतवार का मतलब छुट्टी होता है लेकिन सत्तर के दशक का वह इतवार मेरे जीवन की छुट्टी नहीं "घुट्टी" बन गया। इतवार की सुबह से ही मैं आह्लादित था, ये मेरे जीवन के पहले सात दिन थे जब मैं बिना माँ बाबूजी के अपने घर से बाहर रहा था। मन मिश्रित भावों से भरा हुआ था, हृदय के किसी कोने में माँ,बाबूजी को इम्प्रेस करने का भाव बलवती हो रहा था , यही वो दिन था जब मुझे प्रेम और प्रभाव के बीच का अंतर समझ आया। बच्चे अपने माता पिता से सिर्फ़ प्रेम ही पाना नहीं चाहते वे उन्हें प्रभावित भी करना चाहते हैं। दोपहर ३.३० बजे हम हॉस्टल के विज़िटिंग रूम में आ गए•• ग्रीन ब्लेजर, वाइट पैंट, वाइट शर्ट, ग्रीन एंड वाइट स्ट्राइब वाली टाई और बाटा के ब्लैक नॉटी बॉय शूज़.. ये हमारी स्कूल यूनीफ़ॉर्म थी। हमने विज़िटिंग रूम की खिड़की से स्कूल के कैम्पस में मेन गेट से हमारी मिलेट्री ग्रीन कलर की ओपन फ़ोर्ड जीप को अंदर आते हुए देखा, जिसे मेरे बड़े भाई मोहन जिन्हें पूरा घर भाईजी कहता था ड्राइव कर रहे थे,और माँ बाबूजी बैठे हुए थे। मैं बेहद उत्साहित था मुझे अपने पर पूर्ण विश्वास था की आज इन दोनों को इम्प्रेस कर ही लूँगा। मैंने पुष्टि करने के लिए जयंत भैया जो मुझसे ६ वर्ष बड़े हैं उनसे पूछा मैं कैसा लग रहा हूँ ? वे मुझसे अशर्त प्रेम करते थे मुझे लेके प्रोटेक्टिव भी थे बोले शानदार लग रहे हो नंद भैया ने उनकी बात का अनुमोदन कर मेरे हौसले को और बढ़ा दिया। जीप रुकी.. उलटे पल्ले की गोल्डन ऑरेंज साड़ी में माँ और झक्क सफ़ेद धोती कुर्ता गांधी टोपी और काली जवाहर बंड़ी में बाबूजी उससे उतरे, हम दौड़ कर उनसे नहीं मिल सकते थे ये स्कूल के नियमों के ख़िलाफ़ था, सो मीटिंग हॉल में जैसे सैनिक विश्राम की मुद्रा में अलर्ट खड़ा रहता है एक लाइन में तीनों भाई खड़े माँ बाबूजी का अपने पास पहुँचने का इंतज़ार करने लगे, जैसे ही वे क़रीब आए, हम तीनों भाइयों ने सम्मिलित स्वर में अपनी जगह पर खड़े खड़े Good evening Mummy. Good evening Babuji. कहा। मैंने देखा good evening सुनके बाबूजी हल्का सा चौंके फिर तुरंत ही उनके चहरे पे हल्की स्मित आई जिसमें बेहद लाड़ था मैं समझ गया की ये प्रभावित हो चुके हैं । मैं जो माँ से लिपटा ही रहता था माँ के क़रीब नहीं जा रहा था ताकि उन्हें पता चले की मैं इंडिपेंडेंट हो गया हूँ .. माँ ने अपनी स्नेहसिक्त मुस्कान से मुझे छुआ मैं माँ से लिपटना चाहता था किंतु जगह पर खड़े खड़े मुस्कुराकर अपने आत्मनिर्भर होने का उन्हें सबूत दिया। माँ ने बाबूजी को देखा और मुस्कुरा दीं, मैं समझ गया की ये प्रभावित हो गईं हैं। माँ, बाबूजी, भाईजी और हम तीन भाई हॉल के एक कोने में बैठ बातें करने लगे हमसे पूरे हफ़्ते का विवरण माँगा गया, और ६.३० बजे के लगभग बाबूजी ने हमसे कहा की अपना सामान पैक करो तुम लोगों को गाडरवारा वापस चलना है वहीं आगे की पढ़ाई होगी•• हमने अचकचा के माँ की तरफ़ देखा माँ बाबूजी के समर्थन में दिखाई दीं। हमारे घर में प्रश्न पूछने की आज़ादी थी घर के नियम के मुताबिक़ छोटों को पहले अपनी बात रखने का अधिकार था, सो नियमानुसार पहला सवाल मैंने दागा और बाबूजी से गाडरवारा वापस ले जाने का कारण पूछा ? उन्होंने कहा रानाजी मैं तुम्हें मात्र अच्छा विद्यार्थी नहीं एक अच्छा व्यक्ति बनाना चाहता हूँ। तुम लोगों को यहाँ नया सीखने भेजा था पुराना भूलने नहीं। कोई नया यदि पुराने को भुला दे तो उस नए की शुभता संदेह के दायरे में आ जाती है, हमारे घर में हर छोटा अपने से बड़े परिजन, परिचित,अपरिचित जो भी उसके सम्पर्क में आता है उसके चरण स्पर्श कर अपना सम्मान निवेदित करता है लेकिन देखा की इस नए वातावरण ने मात्र सात दिनों में ही मेरे बच्चों को परिचित छोड़ो अपने माता पिता से ही चरण स्पर्श की जगह Good evening कहना सिखा दिया। मैं नहीं कहता की इस अभिवादन में सम्मान नहीं है, किंतु चरण स्पर्श करने में सम्मान होता है यह मैं विश्वास से कह सकता हूँ। विद्या व्यक्ति को संवेदनशील बनाने के लिए होती है संवेदनहीन बनाने के लिए नहीं होती। मैंने देखा तुम अपनी माँ से लिपटना चाहते थे लेकिन तुम दूर ही खड़े रहे, विद्या दूर खड़े व्यक्ति के पास जाने का हुनर देती है नाकि अपने से जुड़े हुए से दूर करने का काम करती है। आज मुझे विद्यालय और स्कूल का अंतर समझ आया, व्यक्ति को जो शिक्षा दे वह विद्यालय जो उसे सिर्फ़ साक्षर बनाए वह स्कूल, मैं नहीं चाहता की मेरे बच्चे सिर्फ़ साक्षर हो के डिग्रीयों के बोझ से दब जाएँ मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने उसके बोझ को हल्का करने की महारथ देना चाहता हूँ। मैंने तुम्हें अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए भेजा था आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं। संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा संवेदनशील निरक्षर होना है। इसलिए बिस्तर बाँधो और घर चलो। हम तीनों भाई तुरंत माँ बाबूजी के चरणों में गिर गए उन्होंने हमें उठा कर गले से लगा लिया.. व शुभआशीर्वाद दिया कि किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो.. पूज्य बाबूजी जब भी कभी थकता हूँ या हार की कगार पर खड़ा होता हूँ तो आपका यह आशीर्वाद "किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो" संजीवनी बन नव ऊर्जा का संचार कर हृदय को उत्साह उल्लास से भर देता है । आपको शत् शत् प्रणाम आशुतोष राणा

बहुत अच्छा लगा यह छोटा सा लेख पढे !!* ✍✍ "रात के ढाई बजे था, एक सेठ को नींद नहीं आ रही थी, वह घर में चक्कर पर चक्कर लगाये जा रहा था। पर चैन नहीं पड़ रहा था । आखिर थक कर नीचे उतर आया और कार निकाली शहर की सड़कों पर निकल गया। रास्ते में एक मंदिर दिखा सोचा थोड़ी देर इस मंदिर में जाकर भगवान के पास बैठता हूँ। प्रार्थना करता हूं तो शायद शांति मिल जाये। वह सेठ मंदिर के अंदर गया तो देखा, एक दूसरा आदमी पहले से ही भगवान की मूर्ति के सामने बैठा था, मगर उसका उदास चेहरा, आंखों में करूणा दर्श रही थी। सेठ ने पूछा " क्यों भाई इतनी रात को मन्दिर में क्या कर रहे हो ?" आदमी ने कहा " मेरी पत्नी अस्पताल में है, सुबह यदि उसका आपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जायेगी और मेरे पास आपरेशन के लिए पैसा नहीं है " उसकी बात सुनकर सेठ ने जेब में जितने रूपए थे वह उस आदमी को दे दिए। अब गरीब आदमी के चहरे पर चमक आ गईं थीं । सेठ ने अपना कार्ड दिया और कहा इसमें फोन नम्बर और पता भी है और जरूरत हो तो निसंकोच बताना। उस गरीब आदमी ने कार्ड वापिस दे दिया और कहा "मेरे पास उसका पता है " इस पते की जरूरत नहीं है सेठजी आश्चर्य से सेठ ने कहा "किसका पता है भाई "उस गरीब आदमी ने कहा "जिसने रात को ढाई बजे आपको यहां भेजा उसका" इतने अटूट विश्वास से सारे कार्य पूर्ण हो जाते है घर से जब भी बाहर जाये* *तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर मिलकर जाएं* *और* *जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले* *क्योंकि* *उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार रहता है* "घर" में यह नियम बनाइए की जब भी आप घर से बाहर निकले तो घर में मंदिर के पास दो घड़ी खड़े रह कर "प्रभु चलिए..आपको साथ में रहना हैं"..! ऐसा बोल कर ही निकले क्यूँकि आप भले ही *"लाखों की घड़ी" हाथ में क्यूँ ना पहने हो पर "समय" तो "प्रभु के ही हाथ" में हैं न*" ♦🔹♦🔹♦🔹♦

Friday, April 5, 2019

एक बार बादलों की हड़ताल हो गई बादलों ने कहा अगले दस साल पानी नहीं बरसायेंगे। ये बात जब किसानों ने सुनी तो उन्होंने अपने हल वगैरह पैक कर के रख दिये लेकिन एक किसान अपने नियमानुसार हल चला रहा था। कुछ बादल थोड़ा नीचे से गुजरे और किसान से बोले क्यों भाई पानी तो हम बरसाएंगे नहीं फिर क्यों हल चला रहे हो? किसान बोला कोई बात नहीं जब बरसेगा तब बरसेगा लेकिन मैं हल इसलिए चला रहा हूँ कि मैं दस साल में कहीं हल चलाना न भूल जाऊँ। अब बादल भी घबरा गए कि कहीं हम भी बरसना न भूल जाएं। तो वो तुरंत बरसने लगे और उस किसान की मेहनत जीत गई। जिन्होंने सब pack करके रख दिया वो हाथ मलते ही रह गए , सो लगे रहो भले ही परिस्थितियां अभी हमारे विपरीत है , लेकिन आने वाला समय निःसंदेह हमारे लिये अच्छा होगा* *Moral of the story : --- *कामयाबी उन्हीं को मिलती है जो विपरीत परिस्थितियों में भी मेहनत करना नहीं छोड़ते हैं।* *जो पानी से नहाते है वो लिवास बदल सकते हैँ* *पर जो पसीने से नहाते है* *वो इतिहास बदल सकते है*। 🌹🌸🌹🌸🌹🌸🌹

जैसी करनी वैसी भरनी* एक आदमी का पूरा परिवार गुरुद्वारे जाकर गुरु की महान सेवा किया करता था। उस परिवार में एक लड़का जो कि दोनों पैरों से अपाहिज था, वह भी वहाँ बैठे-बैठे बहुत सेवा किया करता था। सेवा करते करते बरसों बीत गए उसका परिवार यह सोचता था कि हम सब गुरुद्वारे जा कर इतनी महान सेवा रोज किया करते हैं, फिर हमारे परिवार में यह बच्चा ऐसे क्यों हुआ, इसका क्या दोष था। एक दिन गुरु पूर्णिमा के दिन सत्संग चल रहा था। हजारों लाखों श्रद्धालुओं के बीच उस अपाहिज पुत्र के पिता ने गद्दी पर बैठे हुए गुरु से एक सवाल किया जय गुरु देव हम सब इतनी गुरुद्वारे में सेवा करते हैं कभी किसी के बारे में बुरा नहीं सोचते हैं ना ही किसी का बुरा करते हैं फिर ऐसा क्या गुनाह हुआ जो हमारा बच्चा अपाहिज पैदा हुआ? फिर गुरु ने जवाब दिया वैसे तो यह बात बता नहीं सकते थे, पर इस समय तूने हजारों लाखों संगत के बीच में यह सवाल पूछा है,अब अगर मैंने तेरे बात का उत्तर नहीं दिया तो हजारो लाखो संगत का विश्वास डामाडोल हो जाएगा। *इसलिए पूछता है तो सुन।* यह जो बच्चा हैं जो दोनों टांगों से बेकार है, पिछले जन्म यह एक किसान का बेटा था। रोज खेत में अपने पिता को दोपहर में भोजन का टिफिन खेत में देने जाया करता था। एक दिन इसकी मां ने इसे दोपहर में 11:00 बजे खाना लगा कर दिया कि बेटा खाना खाकर पापा को टिफिन दे कर आ। इसकी मां ने खाना परोस कर थाली में रखा कि इतने में इसके किसी दोस्त ने आवाज लगाई तो यह खाना वही छोड़ कर अपने दोस्त से बात करने बाहर चला गया। इतने में एक कुत्ता घर में घुस आया और उसने थाली में मुंह डाला और रोटी खाने लगा। लडका जैसे ही घर में वापिस आया और कुत्ते को थाली में मुंह डालता हुआ देखकर पास ही में एक लोहे का बड़ा सा डंडा पड़ा हुआ था इसने यह भी नहीं सोचा कि खाना तो झूठा हो चुका है बिना सोचे समझे उस कुत्ते की दोनों टांगों पर इतनी जोर से लोहे का डंडा मारा कि वह कुत्ता अपनी जिंदगी जब तक जिंदा रहा दोनों पैरों से बेकार हो कर घसीटते घसीटते जिंदगी जिया और तड़प तड़प कर मर गया। यह उसी कुत्ते की बद्दुआ का फल है जो इस जन्म में यह दोनों टांगों से अपाहिज पैदा हुआ है। पुत्र इस संसार में इंसान को अपने अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है इस जन्म में अगर किसी की टांग तोड़ी है तो स्वाभाविक है कि अगले जन्म में अपनी टांग टूटना है। *इसलिए जो भी कर्म करो सोच समझ कर करो और अच्छे कर्म करो कभी किसी का दिल न दुखाओ हमेशा सत्कर्म करो।* 🌹🔸🌹🔸🌹🔸🌹

एक वेलगाडी बाला डंडे से अपनी वेलगाडी* *को पीटे जा रहाथा गालियां बकता जा रहा था* *एक सन्त गुजर रहा था पूछा वेलगाडी वाले से* *तू वेलगाडी को क्यो पीट रहा है कि महाराज ये* *गाड़ी नही चल रही सन्त बोला तू बेलो को मना* *या डांट इनसे गाड़ी चलेगी।* *हम मनुष्यो की भी यही हालत है अपने शरीर* *रूपी वेलगाडी को पीटे जा रहे है वेल रूपी मन* *को नही सुधारते। कोई भूखा रहकर कोई नंगा* *रहकर कोई आग में कोई हिमालय की बर्फ में* *कोई कांटो पर जने कितने तरीको से शरीर को* *सता कर जाने कौनसा धर्म कर रहे है।* *पर मन कैसे मन्दिर बने इस बारे में कुछ नही* *जानते मन है परमात्मा का मंदिर जिसमे आत्मा* *रूप से परमात्मा वेठ सकता है अगर सही दिशा* *में चेतना को मोड़ा जाय।* ॐ तत्सत। 🌹🌷🌹🙏🌹🌷🌹

"स्त्री" क्यों पूजनीय है ?* *==============* *एक बार सत्यभामाजी ने श्रीकृष्ण से पूछा, "मैं आप को कैसी लगती हूँ ?* *" श्रीकृष्ण ने कहा, "तुम मुझे नमक जैसी लगती हो ।"* *सत्यभामाजी इस तुलना को सुन कर क्रुद्ध हो गयी, तुलना भी की तो किस से । आपको इस संपूर्ण विश्व में मेरी तुलना करने के लिए और कोई पदार्थ नहीं मिला।* *श्रीकृष्ण ने उस वक़्त तो किसी तरह सत्यभामाजी को मना लिया और उनका गुस्सा शांत कर दिया ।* *कुछ दिन पश्चात श्रीकृष्ण ने अपने महल में एक भोज का आयोजन किया छप्पन भोग की व्यवस्था हुई।* *सर्वप्रथम सत्यभामाजी से भोजन प्रारम्भ करने का आग्रह किया श्रीकृष्ण ने ।* *सत्यभामाजी ने पहला कौर मुँह में डाला मगर यह क्या - सब्जी में नमक ही नहीं था । कौर को मुँह से निकाल दिया ।* *फिर दूसरा कौर मावा-मिश्री का मुँह में डाला और फिर उसे चबाते-चबाते बुरा सा मुँह बनाया और फिर पानी की सहायता से किसी तरह मुँह से उतारा ।* *अब तीसरा कौर फिर कचौरी का मुँह में डाला और फिर.. आक्..थू !* *तब तक सत्यभामाजी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था । जोर से चीखीं.. किसने बनाई है यह रसोई ?* *सत्यभामाजी की आवाज सुन कर श्रीकृष्ण दौड़ते हुए सत्यभामाजी के पास आये और पूछा क्या हुआ देवी ? कुछ गड़बड़ हो गयी क्या ? इतनी क्रोधित क्यों हो ? तुम्हारा चेहरा इतना तमतमा क्यूँ रहा है ? क्या हो गया ?* *सत्यभामाजी ने कहा किसने कहा था आपको भोज का आयोजन करने को ?* *इस तरह बिना नमक की कोई रसोई बनती है ? किसी वस्तु में नमक नहीं है। मीठे में शक्कर नहीं है। एक कौर नहीं खाया गया।* *श्रीकृष्ण ने बड़े भोलेपन से पूछा, तो क्या हुआ बिना नमक के ही खा लेती ।* *सत्यभामाजी फिर क्रुद्ध होकर बोली कि लगता है दिमाग फिर गया है आपका ? बिना शक्कर के मिठाई तो फिर भी खायी जा सकती है मगर बिना नमक के कोई भी नमकीन वस्तु नहीं खायी जा सकती है ।* *तब श्रीकृष्ण ने कहा तब फिर उस दिन क्यों गुस्सा हो गयी थी जब मैंने तुम्हे यह कहा कि तुम मुझे नमक पर जितनी प्रिय हो ।* *अब सत्यभामाजी को सारी बात समझ में आ गयी की यह सारा वाकया उसे सबक सिखाने के लिए था और उनकी गर्दन झुक गयी ।* *कथा का मर्म :-* *~~~~~~~~~* *स्त्री जल की तरह होती है, जिसके साथ मिलती है उसका ही गुण अपना लेती है । स्त्री नमक की तरह होती है जो अपना अस्तित्व मिटा कर भी अपने प्रेम-प्यार तथा आदर-सत्कार से परिवार को ऐसा बना देती है ।* *माला तो आप सबने देखी होगी। तरह-तरह के फूल पिरोये हुवे पर शायद ही कभी किसी ने अच्छी से अच्छी माला में अदृश्य उस "सूत" को देखा होगा जिसने उन सुन्दर सुन्दर फूलों को एक साथ बाँध कर रखा है ।* *लोग तारीफ़ तो उस माला की करते हैं जो दिखाई देती है मगर तब उन्हें उस सूत की याद नहीं आती जो अगर टूट जाये तो सारे फूल इधर-उधर बिखर जाते है ।।* *स्त्री उस सूत की तरह होती है जो बिना किसी चाह के , बिना किसी कामना के , बिना किसी पहचान के , अपना सर्वस्व खो कर भी किसी के जान-पहचान की मोहताज नहीं होती है और शायद इसीलिए दुनिया श्रीराम के पहले सीताजी को और कान्हाजी के पहले श्री-राधे जी को याद करती है ।* *अपने को विलीन कर के पुरुषों को सम्पूर्ण करने की शक्ति भगवान् ने केवल स्त्रियों को ही दी है ।।* *🌺सम्पूर्ण नारी शक्ति को समर्पित🌺*

एक संत थे बड़े निस्पृह, सदाचारी एवं लोकसेवी। जीवन भर निस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई में लगे रहते। एक बार विचरण करते हुए देवताओं की टोली उनकी कुटिया के समीप से निकली। संत साधनारत थे। साधना से उठे, देखा देवगण खड़े हैं। आदर सम्मान किया, आसन दिया। देवतागण बोले- “आपके लोकहितार्थ किए गए कार्यों को देखकर हमें प्रसन्नता हुई। आप जो चाहें वरदान माँग लें।“ संत विस्मय से बोले- “सब तो है मेरे पास। कोई इच्छा भी नहीं है, जो माँगा जाए।“ देवगण एक स्वर में बोले- “आप को माँगना ही पड़ेगा अन्यथा हमारा बड़ा अपमान होगा।“ संत बड़े असमंजस में पड़े कि कोई तो इच्छा शेष नहीं है माँगे तो क्या माँगे, बड़े विनीत भाव से बोले- “आप सर्वज्ञ हैं, स्वयं समर्थ हैं, आप ही अपनी इच्छा से दे दें मुझे स्वीकार होगा।“ देवता बोले- “तुम दूसरों का कल्याण करो!” संत बोले- “क्षमा करें देव! यह दुष्कर कार्य मुझ से न बन पड़ेगा।“ देवता बोले- “इसमें दुष्कर क्या है?” संत बोले- “मैंने आज तक किसी को दूसरा समझा ही नहीं सभी तो मेरे अपने हैं। फिर दूसरों का कल्याण कैसे बन पड़ेगा?” देवतागण एक दूसरे को देखने लगे कि संतों के बारे में बहुत सुना था आज वास्तविक संत के दर्शन हो गये। देवताओं ने संत की कठिनाई समझकर अपने वरदान में संशोधन किया। “अच्छा आप जहाँ से भी निकलेंगे और जिस पर भी आपकी परछाई पड़ेगी उस उसका कल्याण होता चला जाएगा।“ संत ने बड़े विनम्र भाव से प्रार्थना की- “हे देवगण! यदि एक कृपा और कर दें, तो बड़ा उपकार होगा। मेरी छाया से किसका कल्याण हुआ कितनों का उद्धार हुआ, इसका भान मुझे न होने पाए, अन्यथा मेरा अहंकार मुझे ले डूबेगा।“ देवतागण संत के विनम्र भाव सुनकर नतमस्तक हो गए।कल्याण सदा ऐसे ही संतों के द्वारा संभव है *🙏🏻🌹प्रणाम🌹🙏*

मार्मिक घटना 🔥 〰〰〰〰〰〰 ✍✍✍ 👉एक औरत रोटी बनाते बनाते *"ॐ श्री महावीराय नम: "* का जाप कर रही थी, अलग से पूजा का समय कहाँ निकाल पाती थी बेचारी, तो बस काम करते करते ही...। एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ मे दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़ कर झांकी तो आठ साल का चुन्नू चित्त पड़ा था, खुन से लथपथ। मन हुआ दहाड़ मार कर रोये। परंतु घर मे उसके अलावा कोई था नही, रोकर भी किसे बुलाती, फिर चुन्नू को संभालना भी तो था। दौड़ कर नीचे गई तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में माँ माँ की रट लगाए हुए है। अंदर की ममता ने आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया। फिर 10 दिन पहले करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी कि चुन्नू को गोद मे उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी। रास्ते भर भगवान को जी भर कर कोसती रही, बड़बड़ाती रही, हे भगवान क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को..। खैर डॉक्टर सा. मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया। चोटें गहरी नही थी, ऊपरी थीं तो कोई खास परेशानी नही हुई।... *रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे तब उस औरत का मन बेचैन था। भगवान से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता प्रभुसत्ता को चुनौती दे रही थी।* उसके दिमाग मे दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी। कैसे चुन्नू आंगन में गिरा की एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने चापाकल का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां चिंटू गिरा पड़ा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो..? उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के चुन्नू को उठाया कैसे, कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी? फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू। वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नही ले जा पाती। फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था। *उसका सर प्रभु चरणों मे श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी। मन ही मन प्रभु से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी।* तभी टीवी पर ध्यान गया तो प्रवचन आ रहा था :--- ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ *प्रभु कहते हैं, "मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हे इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।"* ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ उस औरत ने घर के मंदिर में झांक कर देखा, भगवान मुस्कुरा रहे थे। 🙏🏻जय महावीर 🙏🏻🙏🏻 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

Friday, March 29, 2019

बाहर बारिश हो रही थी, और अन्दर क्लास चल रही थी. तभी टीचर ने बच्चों से पूछा - अगर तुम सभी को 100-100 रुपया दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे ? किसी ने कहा - मैं वीडियो गेम खरीदुंगा.. किसी ने कहा - मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा.. किसी ने कहा - मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी.. तो, किसी ने कहा - मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी.. एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था टीचर ने उससे पुछा - तुम क्या सोच रहे हो, तुम क्या खरीदोगे ? बच्चा बोला -टीचर जी मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा ! टीचर ने पूछा - तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना ? बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया ! बच्चे ने कहा -- मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती है, और कम दिखाई देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ, ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ बड़ा आदमी बन सकूँ, और माँ को सारे सुख दे सकूँ.! टीचर -- बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है ! ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार और, ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना और, मेरी इच्छा है, तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पे हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं ! 20 वर्ष बाद.......... बाहर बारिश हो रही है, और अंदर क्लास चल रही है ! अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वाली गाड़ी आकर रूकती है स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता हैं ! स्कूल में सन्नाटा छा जाता हैं ! मगर ये क्या ? जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते हैं, और कहते हैं -- सर मैं .... उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ ! पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध ! वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है, और रो पड़ता हैं ! दोस्तों -- *मशहूर होना, पर मगरूर मत बनना।* *साधारण रहना, कमज़ोर मत बनना।* *वक़्त बदलते देर नहीं लगती..* शहंशाह को फ़कीर, और फ़क़ीर को शहंशाह बनते, *देर नही लगती ....* यह छोटी सी कहानी आप के साथ शेयर की है, अगर दिल को छू गयी हो तो कृपया शेयर करें। 🙏🏻😊😊🙏🏻🙏🏻😊😊🙏🏻

क्रोध का प्रभाव* बहुत समय पहले की बात है, एक गाँव में एक लड़का रहता था. वह बहुत ही गुस्सैल था, छोटी-छोटी बात पर अपना आपा खो बैठता और लोगों को भला-बुरा कह देता। उसकी इस आदत से परेशान होकर एक दिन उसके पिता ने उसे कीलों से भरा हुआ एक थैला दिया और कहा, “अब जब भी तुम्हें गुस्सा आए तो तुम इस थैले में से एक कील निकालना और बाड़े में ठोक देना।” पहले दिन उस लड़के ने चालीस बार गुस्सा किया और इतनी ही कीलें बाड़े में ठोंक दीं। धीरे-धीरे कीलों की संख्या घटने लगी, उसे लगने लगा की कीलें ठोंकने में इतनी मेहनत करने से अच्छा है कि अपने क्रोध पर काबू किया जाए और अगले कुछ हफ्तों में उसने अपने गुस्से पर बहुत हद तक काबू करना सीख लिया। फिर एक दिन ऐसा आया कि उस लड़के ने पूरे दिन में एक बार भी अपना आपा नही खोया। जब उसने अपने पिता को ये बात बताई तो उन्होंने ने फिर उसे एक काम दे दिया, उन्होंने कहा, “अब हर उस दिन जिस दिन तुम एक बार भी गुस्सा ना करो इस बाड़े से एक कील निकाल देना।” लड़के ने ऐसा ही किया, और बहुत समय बाद वो दिन भी आ गया जब लड़के ने बाड़े में लगी आखिरी कील भी निकाल दी, और प्रसन्न होकर उसने अपने पिता को यह बात बताई। तब पिताजी उसका हाथ पकड़कर उसे बाड़े के पास ले गए और बोले, “बेटे, तुमने बहुत अच्छा काम किया है लेकिन क्या तुम बाड़े में हुए छेदों को देख पा रहे हो। अब वह बाड़ा कभी भी वैसा नहीं बन सकता जैसा वह पहले था। जब तुम क्रोध में कुछ कहते हो तो वो शब्द भी इसी तरह सामने वाले व्यक्ति पर गहरे घाव छोड़ जाते हैं।” इसलिए अगली बार अपना आपा खोने से से पहले आप भी यह अवश्य सोच लें कि यह सामने वाले पर कितना गहरा घाव छोड़ सकता है। हो सकता है उस समय आपका गुस्सा आपको उचित लगे लेकिन यह भी हो सकता है की बाद में आपको अत्याधिक पश्चाताप करने के बावजूद भी सुकून न मिले। ☘🌺☘🌺☘🌺☘

एक गुरूजी अपने शिष्यों से 1 ही बात कहते थे- कण कण में भगवान हैं, ऐसी कोई वस्तु और स्थान नही जहां भगवान न हो। अतः संसार में मौजूद प्रत्येक वस्तु को भगवान मान कर उसे नमन करना चाहिए। यही उनकी शिक्षा का निचोड़ था।* *एक दिन उनका एक शिष्य बाजार से हो कर कहीं जा रहा था। तभी उसने देखा कि रास्ते में सामने से एक हाथी बड़ी तेजी से दौड़ता हुआ आ रहा है। महावत लगातार चिल्ला रहा था- हट जाओ, हट जाओ। हाथी पागल हो गया है। शिष्य को गुरु की बात आ गई और वो वहीं खड़ा रहा।* *शिष्य ने सोचा- मेरी तरह हाथी में भी भगवान का वास है। भगवान को भगवान से कैसा डर? उसने सोचा और पूर्ण भक्ति और प्रेम भाव से रास्ते के बीच डटा रहा।* *यह देख कर महावत जोर से चिल्लाय- हट जाओ, क्यों मरना चाहते हो। पर शिष्य अपनी जगह से एक इंच भी इधर-उधर नही हुआ। फिर वही हुआ जो होना था। पागल हाथी ने शिष्य को उठाकर एक तरफ फेंक दिया। बेचारा घायल शिष्य होकर कराहता रहा।* *उसे अधिक पीड़ा इस बात की थी कि भगवान ने भगवान को क्यों मारा? उसके सहपाठी उसे उठा कर आश्रम मे ले गए। उसने गुरु से कहा- आप तो कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु में भगवान है। देखो, हाथी ने मेरी कैसी दुर्गति की है।* *गुरु ने कहा- यह ठीक है कि प्रत्येक जीव में भगवान है, निश्चित ही हाथी में भी भगवान का वास है पर महावत में भी तो भगवान है। तुमने उसकी बात क्यों नही सुनी? शिष्य को अपनी गलती समझ में आ गई।* *लाइफ मैनेजमेंट* *हम अनेक समस्याओं का समाधान भगवान पर छोड़ देते हैं, जबकि थोड़ा दिमाग लगाकर हम स्वयं ही उन परेशानियों का हल ढूंढ सकते हैं। जरूर नहीं कि हर जगह किताबी ज्ञान का सहारा लिया जाए। कुछ जगह प्रेक्टिकल भी होना पड़ता है।* 🌷🌻🌷🌻🌷🌻🌷🌻🌷

एक पार्क मे दो बुजुर्ग बातें कर रहे थे.... पहला :- मेरी एक पोती है, शादी के लायक है... BA किया है, नौकरी करती है, कद - 5"2 इंच है.. सुंदर है कोई लडका नजर मे हो तो बताइएगा.. दूसरा :- आपकी पोती को किस तरह का परिवार चाहिए...?? पहला :- कुछ खास नही.. बस लडका MA /M.TECH किया हो, अपना घर हो, कार हो, घर मे एसी हो, अपने बाग बगीचा हो, अच्छा job, अच्छी सैलरी, कोई लाख रू. तक हो... दूसरा :- और कुछ... पहला :- हाँ सबसे जरूरी बात.. अकेला होना चाहिए.. मां-बाप,भाई-बहन नही होने चाहिए.. वो क्या है लडाई झगड़े होते है... दूसरे बुजुर्ग की आँखें भर आई फिर आँसू पोछते हुए बोला - मेरे एक दोस्त का पोता है उसके भाई-बहन नही है, मां बाप एक दुर्घटना मे चल बसे, अच्छी नौकरी है, डेढ़ लाख सैलरी है, गाड़ी है बंगला है, नौकर-चाकर है.. पहला :- तो करवाओ ना रिश्ता पक्का.. दूसरा :- मगर उस लड़के की भी यही शर्त है की लडकी के भी मां-बाप,भाई-बहन या कोई रिश्तेदार ना हो... कहते कहते उनका गला भर आया.. फिर बोले :- अगर आपका परिवार आत्महत्या कर ले तो बात बन सकती है.. आपकी पोती की शादी उससे हो जाएगी और वो बहुत सुखी रहेगी.... पहला :- ये क्या बकवास है, हमारा परिवार क्यों करे आत्महत्या.. कल को उसकी खुशियों मे, दुःख मे कौन उसके साथ व उसके पास होगा... दूसरा :- वाह मेरे दोस्त, खुद का परिवार, परिवार है और दूसरे का कुछ नही... मेरे दोस्त अपने बच्चो को परिवार का महत्व समझाओ, घर के बडे ,घर के छोटे सभी अपनो के लिए जरूरी होते है... वरना इंसान खुशियों का और गम का महत्व ही भूल जाएगा, जिंदगी नीरस बन जाएगी... पहले वाले बुजुर्ग बेहद शर्मिंदगी के कारण कुछ नही बोल पाए... दोस्तों परिवार है तो जीवन मे हर खुशी, खुशी लगती है अगर परिवार नही तो किससे अपनी खुशियाँ और गम बांटोगे. जय हिन्द जय भारत।

Sunday, March 24, 2019

बोलने की पात्रता* कृष्ण, महावीर और बुद्ध के समय में वही व्यक्ति बोलने जाता था, जिसने जाना हो; जिसने जाना न हो, वह बोलने की चेष्टा भी नहीं करता था। क्योंकि बिना जाने बोलना महा अपराध है। उससे तुम न मालूम कितने लोगों के जीवन में कांटे बो दोगे। शायद तुम्हें बोलने में थोड़ा मजा आ जाए, रस आ जाए; शायद बोलते बोलते तुम्हें लगे कि तुम बड़े महत्वपूर्ण हो गए हो, क्योंकि कई लोग तुम्हें सुन रहे हैं; शायद पांडित्य की अकड़ और अहंकार में थोड़ी तुम्हें तृप्ति मिले। लेकिन तुम्हारी व्यर्थ की तृप्ति के लिए न मालूम कितने लोग मार्ग से च्युत हो जाएंगे। तुम उन्हें भटका दोगे। _और इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप हत्या नहीं है, इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप किसी को उसके मार्ग से भटका देना है।_ तो जितने बड़े पाप अपात्र बोलने वालों ने किए हैं, उतने बड़े पाप किसी ने भी नहीं किए हैं। क्योंकि कोई गरदन पर तुम्हारी तलवार मार दे, तो शरीर ही कटता है, फिर शरीर मिल जाएगा। लेकिन कोई तुम्हारी आत्मा को रास्ते से भटका दे, तो कुछ ऐसी चीज भटक जाती है कि जन्मों जन्मों खोजकर शायद तुम मुश्किल से वापस अपनी जगह पर आ पाओगे। क्योंकि एक भटकाव दूसरे भटकाव में ले जाता है, कड़िया जुड़ी हैं। दूसरा भटकाव तीसरे भटकाव में ले जाता है। और पीछे लौटना मुश्किल होता चला जाता है। तो पहली तो बात ध्यान रखना, इसकी फिक्र मत करना कि कौन पात्र है सुनने में, कौन नहीं। पहले तो इसकी फिक्र करना कि मैं बोलने में पात्र हूं? मैं कृष्ण पर कुछ कहूं? जब तक कृष्ण चेतना का आविर्भाव न हुआ हो, तब तक मत कहना। और इसके लिए किसी से पूछने जाना है? यह तो तुम भीतर ही जान सकोगे कि कृष्ण चेतना का आविर्भाव हुआ या नहीं हुआ। इसकी और किसी से कसौटी लेने की जरूरत भी नहीं है, किसी से पूछने का कोई कारण भी नहीं है। पूछने तो वही जाएगा, जो संदिग्ध है। और कृष्ण चेतना में संदेह नहीं है, वह असंदिग्ध, स्वतःप्रमाण्य अवस्था है। जब भीतर उदित होती है, तो तुम जानते हो, जैसे सूरज उग गया। अब तुम किसी से पूछते थोड़े ही हो कि रात है या दिन! और पूछो, तो बताओगे कि तुम अंधे हो। कृष्ण ने नहीं लगाई कोई शर्त बोलने वाले पर, क्योंकि उन दिनों यह होता ही न था कि जो न जानता हो, वह बोले। जानकर ही कोई बोलता था। और जब तक न जान लेता था, तब तक कितना ही शास्त्रों से इकट्ठा कर ले, इस भ्रांति में नहीं पड़ता था कि मुझे अनुभव हो गया है। गीता दर्शन  ओशो 

पिता की ममता* शहर के एक अन्तरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के विद्यालय के बग़ीचे में तेज़ धूप और गर्मी की परवाह किये बिना, बड़ी लग्न से पेड़ - पौधों की काट छाँट में लगा था कि तभी विद्यालय के चपरासी की आवाज़ सुनाई दी, "गंगादास! तुझे प्रधानाचार्या जी तुरंत बुला रही हैं।" गंगादास को आख़िरी के पांँच शब्दों में काफ़ी तेज़ी महसूस हुई और उसे लगा कि कोई महत्त्वपूर्ण बात हुई है जिसकी वज़ह से प्रधानाचार्या जी ने उसे तुरंत ही बुलाया है। शीघ्रता से उठा, अपने हाथों को धोकर साफ़ किया और चल दिया, द्रुत गति से प्रधानाचार्या के कार्यालय की ओर। उसे प्रधानाचार्या महोदया के कार्यालय की दूरी मीलों की लग रही थी जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी। उसकी हृदयगति बढ़ गई थी। सोच रहा था कि उससे क्या ग़लत हो गया जो आज उसको प्रधानाचार्या महोदया ने तुरंत ही अपने कार्यालय में आने को कहा। वह एक ईमानदार कर्मचारी था और अपने कार्य को पूरी निष्ठा से पूर्ण करता था। पता नहीं क्या ग़लती हो गयी। वह इसी चिंता के साथ प्रधानाचार्या के कार्यालय पहुँचा...... "मैडम, क्या मैं अंदर आ जाऊँ? आपने मुझे बुलाया था।" "हाँ। आओ और यह देखो" प्रधानाचार्या महोदया की आवाज़ में कड़की थी और उनकी उंगली एक पेपर पर इशारा कर रही थी। "पढ़ो इसे" प्रधानाचार्या ने आदेश दिया। "मैं, मैं, मैडम! मैं तो इंग्लिश पढ़ना नहीं जानता मैडम!" गंगादास ने घबरा कर उत्तर दिया। *"मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ मैडम यदि कोई गलती हो गयी हो तो।* मैं आपका और विद्यालय का पहले से ही बहुत ऋणी हूँ। क्योंकि आपने मेरी बिटिया को इस विद्यालय में निःशुल्क पढ़ने की इज़ाज़त दी। मुझे कृपया एक और मौक़ा दें मेरी कोई ग़लती हुई है तो सुधारने का। मैं आप का सदैव ऋणी रहूंँगा।" गंगादास बिना रुके घबरा कर बोलता चला जा रहा था। उसे प्रधानाचार्या ने टोका "तुम बिना वज़ह अनुमान लगा रहे हो। थोड़ा इंतज़ार करो, मैं तुम्हारी बिटिया की कक्षा-अध्यापिका को बुलाती हूँ।" वे पल जब तक उसकी बिटिया की कक्षा-अध्यापिका प्रधानाचार्या के कार्यालय में पहुँची बहुत ही लंबे हो गए थे गंगादास के लिए। सोच रहा था कि क्या उसकी बिटिया से कोई ग़लती हो गयी, कहीं मैडम उसे विद्यालय से निकाल तो नहीं रहीं। उसकी चिंता और बढ़ गयी थी। कक्षा-अध्यापिका के पहुँचते ही प्रधानाचार्या महोदया ने कहा, "हमने तुम्हारी बिटिया की प्रतिभा को देखकर और परख कर ही उसे अपने विद्यालय में पढ़ने की अनुमति दी थी। अब ये मैडम इस पेपर में जो लिखा है उसे पढ़कर और हिंदी में तुम्हें सुनाएँगी, ग़ौर से सुनो।" कक्षा-अध्यापिका ने पेपर को पढ़ना शुरू करने से पहले बताया, "आज मातृ दिवस था और आज मैंने कक्षा में सभी बच्चों को अपनी अपनी माँ के बारे में एक लेख लिखने को कहा। तुम्हारी बिटिया ने जो लिखा उसे सुनो।" उसके बाद कक्षा- अध्यापिका ने पेपर पढ़ना शुरू किया। "मैं एक गाँव में रहती थी, एक ऐसा गाँव जहाँ शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाओं का आज भी अभाव है। चिकित्सक के अभाव में कितनी ही माँयें दम तोड़ देती हैं बच्चों के जन्म के समय। मेरी माँ भी उनमें से एक थीं। उन्होंने मुझे छुआ भी नहीं कि चल बसीं। मेरे पिता ही वे पहले व्यक्ति थे मेरे परिवार के जिन्होंने मुझे गोद में लिया। पर सच कहूँ तो मेरे परिवार के वे अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने मुझे गोद में उठाया था। बाक़ी की नज़र में तो मैं अपनी माँ को खा गई थी। मेरे पिताजी ने मुझे माँ का प्यार दिया। मेरे दादा - दादी चाहते थे कि मेरे पिताजी दुबारा विवाह करके एक पोते को इस दुनिया में लायें ताकि उनका वंश आगे चल सके। परंतु मेरे पिताजी ने उनकी एक न सुनी और दुबारा विवाह करने से मना कर दिया। इस वज़ह से मेरे दादा - दादीजी ने उनको अपने से अलग कर दिया और पिताजी सब कुछ, ज़मीन, खेती बाड़ी, घर सुविधा आदि छोड़ कर मुझे साथ लेकर शहर चले आये और इसी विद्यालय में माली का कार्य करने लगे। मुझे बहुत ही लाड़ प्यार से बड़ा करने लगे। मेरी ज़रूरतों पर माँ की तरह हर पल उनका ध्यान रहता है।" "आज मुझे समझ आता है कि वे क्यों हर उस चीज़ को जो मुझे पसंद थी ये कह कर खाने से मना कर देते थे कि वह उन्हें पसंद नहीं है, क्योंकि वह आख़िरी टुकड़ा होती थी। आज मुझे बड़ा होने पर उनके इस त्याग के महत्त्व पता चला।" "मेरे पिता ने अपनी क्षमताओं में मेरी हर प्रकार की सुख - सुविधाओं का ध्यान रखा और मेरे विद्यालय ने उनको यह सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जो मुझे यहाँ निःशुल्क पढ़ने की अनुमति मिली। उस दिन मेरे पिता की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था।" "यदि माँ, प्यार और देखभाल करने का नाम है तो मेरी माँ मेरे पिताजी हैं।" "यदि दयाभाव, माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी उस परिभाषा के हिसाब से पूरी तरह मेरी माँ हैं।" "यदि त्याग, माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी इस वर्ग में भी सर्वोच्च स्थान पर हैं।" "यदि संक्षेप में कहूँ कि प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग माँ की पहचान है तो मेरे पिताजी उस पहचान पर खरे उतरते हैं और मेरे पिताजी विश्व की सबसे अच्छी माँ हैं।" आज मातृ दिवस पर मैं अपने पिताजी को शुभकामनाएँ दूँगी और कहूँगी कि आप संसार के सबसे अच्छे पालक हैं। बहुत गर्व से कहूँगी कि ये जो हमारे विद्यालय के परिश्रमी माली हैं, मेरे पिता हैं।" "मैं जानती हूँ कि मैं आज की लेखन परीक्षा में असफल हो जाऊँगी। क्योंकि मुझे माँ पर लेख लिखना था और मैंने पिता पर लिखा,पर यह बहुत ही छोटी सी क़ीमत होगी उस सब की जो मेरे पिता ने मेरे लिए किया। धन्यवाद"। आख़िरी शब्द पढ़ते - पढ़ते अध्यापिका का गला भर आया था और प्रधानाचार्या के कार्यालय में शांति छा गयी थी। इस शांति में केवल गंगादास के सिसकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। बग़ीचे में धूप की गर्मी उसकी कमीज़ को गीला न कर सकी पर उस पेपर पर बिटिया के लिखे शब्दों ने उस कमीज़ को पिता के आँसुओं से गीला कर दिया था। वह केवल हाथ जोड़ कर वहाँ खड़ा था। उसने उस पेपर को अध्यापिका से लिया और अपने हृदय से लगाया और रो पड़ा। प्रधानाचार्या ने खड़े होकर उसे एक कुर्सी पर बैठाया और एक गिलास पानी दिया तथा कहा, "गंगादास तुम्हारी बिटिया को इस लेख के लिए पूरे 10/10 नम्बर दिए गए है। यह लेख मेरे अब तक के पूरे विद्यालय जीवन का सबसे अच्छा मातृ दिवस का लेख है। हम कल मातृ दिवस अपने विद्यालय में बड़े ज़ोर - शोर से मना रहे हैं। इस दिवस पर विद्यालय एक बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित करने जा रहा है। विद्यालय की प्रबंधक कमेटी ने आपको इस कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाने का निर्णय लिया है। यह सम्मान होगा उस प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग का जो एक आदमी अपने बच्चे के पालन के लिए कर सकता है। यह सिद्ध करता है कि आपको एक औरत होना आवश्यक नहीं है एक पालक बनने के लिए। साथ ही यह अनुशंषा करता है उस विश्वाश का जो विश्वास आपकी बेटी ने आप पर दिखाया। हमें गर्व है कि संसार का सबसे अच्छा पिता हमारे विद्यालय में पढ़ने वाली बच्ची का पिता है जैसा कि आपकी बिटिया ने अपने लेख में लिखा। गंगादास हमें गर्व है कि आप एक माली हैं और सच्चे अर्थों में माली की तरह न केवल विद्यालय के बग़ीचे के फूलों की देखभाल की बल्कि अपने इस घर के फूल को भी सदा ख़ुशबूदार बनाकर रखा जिसकी ख़ुशबू से हमारा विद्यालय महक उठा। तो क्या आप हमारे विद्यालय के इस मातृ दिवस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनेंगे?" रो पड़ा गंगादास और दौड़ कर बिटिया की कक्षा के बाहर से आँसू भरी आँखों से निहारता रहा , अपनी प्यारी बिटिया को। *संसार की समस्त प्यारी - प्यारी बेटियों के पालकों को समर्पित* *सदैव प्रसन्न रहिये* *जो प्राप्त है-पर्याप्त है* 🌺🌻🌺🌻🌺🌻🌺

कार से उतरकर भागते हुए हॉस्पिटल में पहुंचे नोजवान बिजनेस मैन ने पूछा.. “डॉक्टर, अब कैसी हैं माँ?“ हाँफते हुए उसने पूछा। *“अब ठीक हैं। माइनर सा स्ट्रोक था। ये बुजुर्ग लोग उन्हें सही समय पर लें आये, वरना कुछ बुरा भी हो सकता था।* “ डॉ ने पीछे बेंच पर बैठे दो बुजुर्गों की तरफ इशारा कर के जवाब दिया। “रिसेप्शन से फॉर्म इत्यादि की फार्मैलिटी करनी है अब आपको।” डॉ ने जारी रखा। “थैंक यू डॉ. साहेब, वो सब काम मेरी सेक्रेटरी कर रही हैं“ अब वो रिलैक्स था। फिर वो उन बुजुर्गों की तरफ मुड़ा.. “थैंक्स अंकल, पर मैनें आप दोनों को नहीं पहचाना।“ “सही कह रहे हो बेटा, तुम नहीं पहचानोगे क्योंकि *हम तुम्हारी माँ के वाट्सअप फ्रेंड हैं ।”* एक ने बोला। “क्या, वाट्सअप फ्रेंड ?” चिंता छोड़ , उसे अब, अचानक से अपनी माँ पर गुस्सा आया। *“58 + नॉम का वाट्सप ग्रुप है हमारा।”* “सिक्सटी प्लस नाम के इस ग्रुप में साठ साल व इससे ज्यादा उम्र के लोग जुड़े हुए हैं। इससे जुड़े हर मेम्बर को उसमे रोज एक मेसेज भेज कर अपनी उपस्थिति दर्ज करानी अनिवार्य होती है, साथ ही अपने आस पास के बुजुर्गों को इसमें जोड़ने की भी ज़िम्मेदारी दी जाती है।” “महीने में एक दिन हम सब किसी पार्क में मिलने का भी प्रोग्राम बनाते हैं।” “जिस किसी दिन कोई भी मेम्बर मैसेज नहीं भेजता है तो उसी दिन उससे लिंक लोगों द्वारा, उसके घर पर, उसके हाल चाल का पता लगाया जाता है।” आज सुबह तुम्हारी माँ का मैसेज न आने पर हम 2 लोग उनके घर पहुंच गए..। वह गम्भीरता से सुन रहा था । *“पर माँ ने तो कभी नहीं बताया।*" उसने धीरे से कहा। “माँ से अंतिम बार तुमने कब बात की थी बेटा? क्या तुम्हें याद है ?” एक ने पूछा। बिज़नेस में उलझा, तीस मिनट की दूरी पर बने माँ के घर जाने का समय निकालना कितना मुश्किल बना लिया था खुद उसने। हाँ पिछली दीपावली को ही तो मिला था वह उनसे गिफ्ट देने के नाम पर। बुजुर्ग बोले.. “बेटा, तुम सबकी दी हुई सुख सुविधाओं के बीच, अब कोई और माँ या बाप अकेले घर मे कंकाल न बन जाएं... बस यही सोच ये ग्रुप बनाया है हमने। वरना दीवारों से बात करने की तो हम सब की आदत पड़ चुकी है।” *उसके सर पर हाथ फेर कर दोनों बुज़ुर्ग अस्पताल से बाहर की ओर निकल पड़े। नवयुवक एकटक उनको जाते हुए देखता ही रह गया।* अगर ये आपको कुछ सीख दे तो कृपया किसी और को भी भेजने में संकोच ना करे ? *धन्यवाद* *कुछ सालोंके बाद हमे भी ऐसा ग्रुप बनाना पड़ सकता है।* 🌻🌱🌻🌱🌻🌱🌻🌱🌻

Saturday, March 23, 2019

बोलने की पात्रता* कृष्ण, महावीर और बुद्ध के समय में वही व्यक्ति बोलने जाता था, जिसने जाना हो; जिसने जाना न हो, वह बोलने की चेष्टा भी नहीं करता था। क्योंकि बिना जाने बोलना महा अपराध है। उससे तुम न मालूम कितने लोगों के जीवन में कांटे बो दोगे। शायद तुम्हें बोलने में थोड़ा मजा आ जाए, रस आ जाए; शायद बोलते बोलते तुम्हें लगे कि तुम बड़े महत्वपूर्ण हो गए हो, क्योंकि कई लोग तुम्हें सुन रहे हैं; शायद पांडित्य की अकड़ और अहंकार में थोड़ी तुम्हें तृप्ति मिले। लेकिन तुम्हारी व्यर्थ की तृप्ति के लिए न मालूम कितने लोग मार्ग से च्युत हो जाएंगे। तुम उन्हें भटका दोगे। _और इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप हत्या नहीं है, इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप किसी को उसके मार्ग से भटका देना है।_ तो जितने बड़े पाप अपात्र बोलने वालों ने किए हैं, उतने बड़े पाप किसी ने भी नहीं किए हैं। क्योंकि कोई गरदन पर तुम्हारी तलवार मार दे, तो शरीर ही कटता है, फिर शरीर मिल जाएगा। लेकिन कोई तुम्हारी आत्मा को रास्ते से भटका दे, तो कुछ ऐसी चीज भटक जाती है कि जन्मों जन्मों खोजकर शायद तुम मुश्किल से वापस अपनी जगह पर आ पाओगे। क्योंकि एक भटकाव दूसरे भटकाव में ले जाता है, कड़िया जुड़ी हैं। दूसरा भटकाव तीसरे भटकाव में ले जाता है। और पीछे लौटना मुश्किल होता चला जाता है। तो पहली तो बात ध्यान रखना, इसकी फिक्र मत करना कि कौन पात्र है सुनने में, कौन नहीं। पहले तो इसकी फिक्र करना कि मैं बोलने में पात्र हूं? मैं कृष्ण पर कुछ कहूं? जब तक कृष्ण चेतना का आविर्भाव न हुआ हो, तब तक मत कहना। और इसके लिए किसी से पूछने जाना है? यह तो तुम भीतर ही जान सकोगे कि कृष्ण चेतना का आविर्भाव हुआ या नहीं हुआ। इसकी और किसी से कसौटी लेने की जरूरत भी नहीं है, किसी से पूछने का कोई कारण भी नहीं है। पूछने तो वही जाएगा, जो संदिग्ध है। और कृष्ण चेतना में संदेह नहीं है, वह असंदिग्ध, स्वतःप्रमाण्य अवस्था है। जब भीतर उदित होती है, तो तुम जानते हो, जैसे सूरज उग गया। अब तुम किसी से पूछते थोड़े ही हो कि रात है या दिन! और पूछो, तो बताओगे कि तुम अंधे हो। कृष्ण ने नहीं लगाई कोई शर्त बोलने वाले पर, क्योंकि उन दिनों यह होता ही न था कि जो न जानता हो, वह बोले। जानकर ही कोई बोलता था। और जब तक न जान लेता था, तब तक कितना ही शास्त्रों से इकट्ठा कर ले, इस भ्रांति में नहीं पड़ता था कि मुझे अनुभव हो गया है। गीता दर्शन  ओशो 

शादी की सुहागसेज पर बैठी एक स्त्री का पति जब भोजनका थाल लेकर अंदर आया तो पूरा कमरा उस स्वादिष्ट भोजन की खुशबू से भर गया रोमांचित उस स्त्री ने अपने पति से निवेदन किया कि मांजी को भी यहीं बुला लेते तो हम तीनों साथ बैठकर भोजन करते। पति ने कहा छोड़ो उन्हें वो खाकर सो गई होंगी आओ हम साथ में भोजन करते है प्यार से, उस स्त्री ने पुनः अपने पति से कहा कि नहीं मैंने उन्हें खाते हुए नहीं देखा है, तो पति ने जवाब दिया कि क्यों तुम जिद कर रही हो शादी के कार्यों से थक गयी होंगी इसलिए सो गई होंगी, नींद टूटेगी तो खुद भोजन कर लेंगी। तुम आओ हम प्यार से खाना खाते हैं। उस स्त्री ने तुरंत divorce लेने का फैसला कर लिया और divorce लेकर उसने दूसरी शादी कर ली और इधर उसके पहले पति ने भी दूसरी शादी कर ली। दोनों अलग- अलग सुखी घर गृहस्ती बसा कर खुशी खुशी रहने लगे। इधर उस स्त्री के दो बच्चे हुए जो बहुत ही सुशील और आज्ञाकारी थे। जब वह स्त्री ६० वर्ष की हुई तो वह बेटों को बोली में चारो धाम की यात्रा करना चाहती हूँ ताकि तुम्हारे सुखमय जीवन के लिए प्रार्थना कर सकूँ। बेटे तुरंत अपनी माँ को लेकर चारों धाम की यात्रा पर निकल गये। एक जगह तीनों माँ बेटे भोजन के लिए रुके और बेटे भोजन परोस कर मां से खाने की विनती करने लगे। उसी समय उस स्त्री की नजर सामने एक फटेहाल, भूखे और गंदे से एक वृद्ध पुरुष पर पड़ी जो इस स्त्री के भोजन और बेटों की तरफ बहुत ही कातर नजर से देख रहा था। उस स्त्री को उस पर दया आ गईं और बेटों को बोली जाओ पहले उस वृद्ध को नहलाओ और उसे वस्त्र दो फिर हम सब मिलकर भोजन करेंगे। बेटे जब उस वृद्ध को नहलाकर कपड़े पहनाकर उसे उस स्त्री के सामने लाये तो वह स्त्री आश्चर्यचकित रह गयी वह वृद्ध वही था जिससे उसने शादी की सुहागरात को ही divorce ले लिया था। उसने उससे पूछा कि क्या हो गया जो तुम्हारी हालत इतनी दयनीय हो गई तो उस वृद्ध ने नजर झुका के कहा कि सब कुछ होते ही मेरे बच्चे मुझे भोजन नहीं देते थे, मेरा तिरस्कार करते थे, मुझे घर से बाहर निकाल दिया। उस स्त्री ने उस वृद्ध से कहा कि इस बात का अंदाजा तो मुझे तुम्हारे साथ सुहागरात को ही लग गया था जब तुमने पहले अपनी बूढ़ी माँ को भोजन कराने के बजाय उस स्वादिष्ट भोजन की थाल लेकर मेरेकमरे में आ गए और मेरे बार-बार कहने के बावजूद भी आप ने अपनी माँ का तिरस्कार किया। उसी का फल आज आप भोग रहे हैं। *जैसा व्यहवार हम अपने* *बुजुर्गों के साथ करेंगे उसी* *देखा-देख कर हमारे बच्चों* *में भी यह गुण आता है कि* *शायद यही परंपरा होती है।* *सदैव माँ बाप की सेवा ही* *हमारा दायित्व बनता है।* *जिस घर में माँ बाप हँसते है,* *वहीं प्रभु बसते है।* 🌻🌹🌻🌹🌻🌹🌻

मन* विवेकानंद ने लिखा है कि वे पहली दफा हिमालय गए। एक पहाड़ी के पास से गुजरते थे। संन्यासी के गैरिक वस्त्र ! कुछ बंदरो को मजा आ गया। कुछ बंदर उन्हें चिढ़ाने लगे। संन्यासी को देख कर कई तरह के बंदरो को चिढ़ाने का मजा आता है। बंदरो को ही चिढ़ाने का मजा आता है, और किसको आएगा ! अब बंदर कोई धार्मिक तो होते नहीं, शैतान प्रकृति के होते हैं। मन जैसा ही उनका ढंग होता है। इसलिए तो मन को बंदर कहते है। विवेकानंद को डर लगा। ऐसे तो मजबूत आदमी थे। मगर कितने ही मजबूत होओ, कोई बीस-पच्चीस बंदर अगर तुम्हारे पीछे पड़े हों... एक ही काफी है। वे बंदर उनके पीछे ही चलने लगे। आवाज कसें, खिल्ली उड़ाएं। फिर तो कंकड़-पत्थर फेंकने लगे। विवेकानंद ने भागना शुरू कर दिया। विवेकानंद भागे तो और बंदर जो वृक्षों पर बैठे थे उनको भी रस आ गया। घिराव ही हो गया। और बंदर भी उतर आए। विवेकानंद ने देखा, यह तो बचने का उपाय नहीं है। ऐसे अगर मैं भागा तो ये मेरी चिंदी-चिंदी कर डालेंगे। वे रुक कर खड़े हो गए। वे रुक कर खड़े हुए तो बंदर भी खड़े हो गए। बंदर ही तो ठहरे आखिर ! जब उन्होंने देखा कि मेरे रुकने से ये भी रुक गए, तो पीछे मुड़ कर उन्होंने बंदरों की तरफ देखा, तो बंदर थोड़े सहमे, दो कदम पीछे भी हटे। विवेकानंद उनकी तरफ दौड़े, तो वे भाग कर वृक्षों पर सवार हो गए। विवेकानंद ने अपने संस्मरणों में लिखा कि उस दिन मुझे समझ में आया कि मन के साथ भी यही हालत है : इससे डरो, इसकी मानो, इससे भागो, तो यह और सताता है। रुको, ठहरो, घूर कर इसे देखो, मत डरो, दो कदम इसकी तरफ बढ़ाओ, इसको चुनौती दे दो कि तुझे जो करना हो कर, हम हिलने वाले नहीं, डुलने वाले नहीं - तो यह पूंछ हिलाने लगता है। ☘☘☘☘☘☘☘☘

*अच्छी सिख

*अच्छी सिख*
एक बार एक पिता और पुत्र साथ कहीं टहलने निकले, टहलते टहलते वे दूर खेतों की तरफ निकल आये। तभी बातों बातों में पुत्र ने देखा की रास्ते में पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं , जो संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे जो अब अपना काम ख़त्म कर घर वापस जाने की तयारी कर रहा था .
पुत्र को मजाक सूझा उसने पिता से कहा , “ पिताजी जी क्यों न आज की शाम को थोड़ी शरारत से यादगार बनायें, आखिर मस्ती ही तो आनन्द का सही श्रोत है और यादों में भी ये पल याद रहते है, पिता ने असमंजस वस बेटे की ओर देखा , पुत्र बोला हम ये जूते कहीं छिपा कर झाड़ियों के पीछे छिप जाएं ; जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा !!” उसकी तलब देखने लायक होगी और इसका आनन्द मैं जीवन भर याद रखूंगा।।
पिता पुत्र की बात को सुन गम्भीर हुये और बोले,,  “ बेटा किसी गरीब और कमजोर के सांथ और उसकी जरूरत की वस्तु  के साथ इस तरह का भद्दा मजाक कभी न करना ,जिन चीजों की तुम्हारी नजरों में कोई कीमत नहीं वो उस गरीब के लीये बेसकीमती है, अगर तुम्हें ये शाम यादगार ही बनानी है तो आओ आज हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छिप कर देखें की इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है !!”
पिता ने ऐसा ही किया और दोनों पास की ऊँची झाड़ियों में छुप गए .
मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया . उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ , उसने जल्दी  से जूते हाथ में लिए और देखा की अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे , उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें पलट -पलट कर देखने लगा.
फिर उसने इधर -उधर देखने लगा की उसका मददगार शख्स को है?? दूर -दूर तक कोई नज़र नहीं आया तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए . अब उसने दूसरा जूता उठाया , उसमे भी सिक्के पड़े थे …मजदूर भावविभोर हो गया , वो घुटनो के बल जमीन पर बैठ, आसमान की तरफ देख फुट फुट कर रोने लगे गया,  आसमान की तरफ हाँथ जोड़ बोला
“हे भगवान् ,आज आप हिं किसी न किसी रूप में यहां आये थे, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए  आपका और आपके माध्यम से जिसने भी ये मदद दी उसका लाख -लाख धन्यवाद , आज आपकी  सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखें बच्चों को रोटी मिल सकेगी.” तुम बोहत दयालु हो प्रभु कोट कोट धन्यवाद।।
मजदूर की बातें सुन बेटे की आँखें भर आयीं . पिता ने पुत्र को सीने से लगाते हुयेे कहा – “ क्या तुम्हारी मजाक मजे वाली बात से जो आनन्द तुम्हें जीवन भर याद रहता उसकी तुलना में इस गरीब के आंसू और तुम्हें दिए हुये आशीर्वाद तुंम्हे जीवन पर्यतन जो आनन्द देंगे उसकी तुलना की जा सकती है?? क्या इसका आनन्द उससे कम है??
पिताजी आज आपसे मुझे जो सिखने को मिला है उसके आनंद को मैं अपने अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ, अंदर में एक अजीब सा सुकून है। आज के प्राप्त सुख और आनन्द को  मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा . आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया हूँ जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था आज तक मैं मजा और मस्ती , मजाक को ही वास्तविक आनन्द समझता था,पर आज मैं समझ गया हूँ कि लेने  की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है . देने का आनंद असीम है . देना ही देवत्तव है .”

कथा सार----
आज हम सुखों को अपनी इच्छाओं में,  वस्तुओं में, घूमने में, व्यसन में , मौज मस्ती में, पैसों में, तरक्की में, भोग में, खाने पीने में, ढूंढ रहे हैं,, पर क्या सुख और शांति की प्राप्ति हुई???
दरअसल हम सुख को ढूंढ बाहर की चीजों में रहे हैं और वो हमारे अंदर ही है ,जरूरत बस उसे देखने भर मात्र की ही है।।
देने का सुख अन्य सभी सुखों से बड़ा है,यहां देने का मतलब पैसे, दान , या सिर्फ मदद् और पैसों से नही है, जिसके पास है वो भले दे उसमे कुछ गलत नहीं है, पर पैसों से भी बद्धकर दौलत है, प्रेम, सहयोग, विश्वास, अपनत्व, मान, समानता, ये ऐसा धन है जिसे आप चाहे जितना  लोगों में बाँट सकते हो जिनकी तुलना पैसों से नहीं की जा सकती, और इसका सुख असीम है। क्योंकि प्रेमऔर सुख  वो धन है जो न मांग कर प्राप्त किया जा सकता है, न छीन कर, और न ही वस्तूओं और कामनाओं को प्राप्त करके ,,  यह तो केवल बाँटने से ही प्राप्त हो सकता है।।

*जय श्रीराधे कृष्णा*

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*-:- गुरु का महत्व -:-*

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*-:- गुरु का महत्व -:-*
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--मैने एक आदमी से पूछा कि गुरू कौन है! वो सेब खा रहा था,उसने एक सेब मेरे हाथ मैं देकर मुझसे पूछा इसमें कितने बीज हें बता सकते हो ?
--सेब काटकर मैंने गिनकर कहा तीन बीज हैं!
उसने एक बीज अपने हाथ में लिया और फिर पूछा
इस बीज में कितने सेब हैं यह भी सोचकर बताओ?
मैं सोचने लगा एक बीज से एक पेड़, एक पेड़ से अनेक सेव अनेक सेबो में फिर तीन तीन बीज हर बीज से फिर एक एक पेड़ और यह अनवरत क्रम!
वो मुस्कुराते हुए बोले : बस इसी तरह गुरु की कृपा हमें प्राप्त होती रहती है! बस हमें उसकी भक्ति का एक बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है!
-:-गुरू एक तेज हे जिनके आते ही, सारे सन्शय के अंधकार खतम हो जाते हैं!
-:-गुरू वो मृदंग है जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते है!
-:-गुरू वो ज्ञान हैं जिसके मिलते ही भय समाप्त हो जाता है ।
-:-गुरू वो दीक्षा है जो सही मायने में मिलती है तो भवसागर पार हो जाते है!
-:-गुरू वो नदी है जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हैं!
-:-गुरू वो सत चित आनंद है जो हमें हमारी पहचान देता है!
-:-गुरू वो बांसुरी है जिसके बजते ही मन और शरीर आनंद अनुभव करता है!
-:-गुरू वो अमृत है जिसे पीकर कोई कभी प्यासा नही रहता है!
-:-गुरू वो कृपा ही है जो सिर्फ कुछ सद शिष्यों को विशेष रूप मे मिलती है और कुछ पाकर भी समझ नही पाते हैं!
-:-गुरू वो खजाना है जो अनमोल है!
-:-गुरू वो प्रसाद है जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ भी मांगने की ज़रूरत नही पड़ती हैं ||

🕉🚩जय श्री गुरू देव🚩🕉
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Tuesday, February 12, 2019

✍🏿बड़ी दौड़ धुप के बाद वो आज ऑफिस पहुंचा, उसका पहला इंटरव्यू था.घर से निकलते हुए वो सोच रहा था, काश ! इंटरव्यू में आज कामयाब हो गया तो अपने पुश्तैनी मकान को अलविदा कहकर यही शहर में सैटल हो जाऊंगा, मम्मी,डैडी की रोज़ की किरकिर, मग़जमारी से छुटकारा हासिल हो जायेगा. सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक होने वाली किरकिर से बेज़ार हो गया हूँ. जब नहाने की तैयारी करो तो पहले बिस्तर दुरुस्त करो फिर बाथरूम जाओ, बाथरूम से निकलो तो फरमान जारी होता है "नल बंद कर दिया?" "तौलिया सही जगह रखा या यूँ ही फेंक दिया?" नाश्ता करके घर से निकलो तो डांट पडती है "पंखा बंद किया या चल रहा है?" क्या- क्या सुनें यार, नौकरी मिले तो घर छोड़ दूंगा.. ऑफिस में बुहत सारे उम्मीद्वार बैठे थे, बॉस का इंतज़ार कर रहे थे. दस बज गए, उसने देखा पैसेज की बत्ती अभी तक जल रही है,माँ याद आ गई तो बत्ती बुझा दी,ऑफिस के दरवाज़े पर कोई नहीं था,बग़ल में रखे वाटर कूलर से पानी टपक रहा था,डैडी की डांट याद आ गयी, बोर्ड पर लिखा था इंटरव्यू दूसरी मंज़िल पर होगा. सीढ़ी की लाइट भी जल रही थी,बंद करके आगे बढ़ा तो एक कुर्सी रास्ते में थी,उसे हटाकर ऊपर गया,देखा पहले से मौजूद उम्मीद्वार जाते और फ़ौरन बाहर आते, पता किया तो मालुम हुआ बॉस फाइल लेकर कुछ पूछते नहीं,वापस भेज देते हैं. मेरा नंबर आने पर मैंने फाइल मैनेजर की तरफ बढ़ा दी.कागज़ात पर नज़र दौडाने के बाद उन्होंने कहा "कब ज्वाइन कर रहे हो?" उनके सवाल से मुझे यूँ लगा जैसे मज़ाक़ हो. वो मेरा चेहरा देखकर कहने लगा ये मज़ाक़ नहीं हक़ीक़त है. आज के इंटरव्यू में किसी से कुछ पूछा ही नहीं,सिर्फ CCTV में सबका बर्ताव देखा,सब आये लेकिन किसी ने नल या लाइट बंद नहीं किया. मुबारकबाद के मुस्तहक है तुम्हारे माँ बाप जिन्होंने तुम्हारी इतनी अच्छी परवरिश की और अच्छे संस्कार दिए. जिस इंसान के पास Self Discipline नहीं वो चाहे कितना भी होश्यार और चालाक हो, मैनेजमेंट और ज़िन्दगी की दौड़ धुप में कामयाब नहीं होसकता. घर पहुंचकर मम्मी डैडी को गले लगाया और उनसे माफ़ी मांगकर उनका शुक्रिया अदा किया, अपनी ज़िन्दगी की आज़मायिश में उनकी छोटी छोटी बातों पर रोकने और टोकने से मुझे जो सबक़ हासिल हुआ उसके मुक़ाबिल मेरे डिग्री की कोई हैसियत नहीं थी और पता चला ज़िन्दगी के मुक़ाबले में सिर्फ तालीम ही नहीं तहज़ीब और संस्कार का भी अपना मक़ाम है...✍🏿 एक लाईन... "घर की इस बार मुकम्मल मे तलाशी लूँगा, गम छुपा कर मेरे माँ-बाप कहाँ रखते थे…😊😊

Thursday, January 24, 2019

गरुड़ पुराण के छत्तीस 🔥नरकों🔥 का विवरण

जय श्री हरी ,,गरुड़ पुराण के छत्तीस 🔥नरकों🔥 का विवरण ➡ :
गरुड़ पुराणः ये हैं 36 नर्क, जानिए किसमें कैसे दी जाती है सजाl
हिंदू धर्म ग्रंथों में लिखी अनेक कथाओं में स्वर्ग और नर्क के बारे में बताया गया है। पुराणों के अनुसार स्वर्ग वह स्थान होता है जहां देवता रहते हैं और अच्छे कर्म करने वाले इंसान की आत्मा को भी वहां स्थान मिलता है, इसके विपरीत बुरे काम करने वाले लोगों को नर्क भेजा जाता है, जहां उन्हें सजा के तौर पर गर्म तेल में तला जाता है और अंगारों पर सुलाया जाता है।

हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों ने 36 तरह के मुख्य नर्कों का वर्णन किया गया है। अलग-अलग कर्मों के लिए इन नर्कों में सजा का प्रावधान भी माना गया है। गरूड़ पुराण, अग्रिपुराण, कठोपनिषद जैसे प्रामाणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। आज हम आपको उन नर्कों के बारे में संक्षिप्त रूप से बता रहे हैं-
1. महावीचि
2. कुंभीपाक
3. रौरव
4. मंजूष
5. अप्रतिष्ठ
6. विलेपक
7. महाप्रभ
8. जयंती
9. शाल्मलि
10. महारौरव
11. तामिस्र
12. महातामिस्र
13. असिपत्रवन
14. करम्भ बालुका
15. काकोल
16. कुड्मल
17. महाभीम
18. महावट
19. तिलपाक
20. तैलपाक
21. वज्रकपाट
22. निरुच्छवास
23. अंगारोपच्य
24. महापायी
25. महाज्वाल
26. क्रकच
27. गुड़पाक
28. क्षुरधार
29. अम्बरीष
30. वज्रकुठार
31. परिताप
32. काल सूत्र
33. कश्मल
34. उग्रगंध
35. दुर्धर
36. वज्रमहापीड
1. महावीचि- यह नर्क पूरी तरह रक्त यानी खून से भरा है और इसमें लोहे के बड़े-बड़े कांटे हैं। जो लोग गाय की हत्या करते हैं, उन्हें इस नर्क में यातना भुगतनी पड़ती है।
2. कुंभीपाक- इस नर्क की जमीन गरम बालू और अंगारों से भरी है। जो लोग किसी की भूमि हड़पते हैं या ब्राह्मण की हत्या करते हैं। उन्हें इस नर्क में आना पड़ता है।
3. रौरव- यहां लोहे के जलते हुए तीर होते हैं। जो लोग झूठी गवाही देते हैं उन्हें इन तीरों से बींधा जाता है।
4. मंजूष- यह जलते हुए लोहे जैसी धरती वाला नर्क है। यहां उनको सजा मिलती है, जो दूसरों को निरपराध बंदी बनाते हैं या कैद में रखते हैं।
5. अप्रतिष्ठ- यह पीब, मूत्र और उल्टी से भरा नर्क है। यहां वे लोग यातना पाते हैं, जो ब्राह्मणों को पीड़ा देते हैं या सताते हैं।
6. विलेपक- यह लाख की आग से जलने वाला नर्क है। यहां उन ब्राह्मणों को जलाया जाता है, जो शराब पीते हैं।
7. महाप्रभ- इस नर्क में एक बहुत बड़ा लोहे का नुकीला तीर है। जो लोग पति-पत्नी में फूट डालते हैं, पति-पत्नी के रिश्ते तुड़वाते हैं वे यहां इस तीर में पिरोए जाते हैं।
8. जयंती- यहां जीवात्माओं को लोहे की बड़ी चट्टान के नीचे दबाकर सजा दी जाती है। जो लोग पराई औरतों के साथ संभोग करते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।
9. शाल्मलि- यह जलते हुए कांटों से भरा नर्क है। जो औरत कई पुरुषों से संभोग करती है व जो व्यक्ति हमेशा झूठ व कड़वा बोलता है, दूसरों के धन और स्त्री पर नजर डालता है। पुत्रवधू, पुत्री, बहन आदि से शारीरिक संबंध बनाता है व वृद्ध की हत्या करता है, ऐसे लोगों को यहां लाया जाता है।
10. महारौरव- इस नर्क में चारों तरफ आग ही आग होती है। जैसे किसी भट्टी में होती है। जो लोग दूसरों के घर, खेत, खलिहान या गोदाम में आग लगाते हैं, उन्हें यहां जलाया जाता है।
11. तामिस्र- इस नर्क में लोहे की पट्टियों और मुग्दरों से पिटाई की जाती है। यहां चोरों को यातना मिलती है।
12. महातामिस्र- इस नर्क में जौंके भरी हुई हैं, जो इंसान का रक्त चूसती हैं। माता, पिता और मित्र की हत्या करने वाले को इस नर्क में जाना पड़ता है।
13. असिपत्रवन- यह नर्क एक जंगल की तरह है, जिसके पेड़ों पर पत्तों की जगह तीखी तलवारें और खड्ग हैं। मित्रों से दगा करने वाला इंसान इस नर्क में गिराया जाता है।
14. करम्भ बालुका- यह नर्क एक कुएं की तरह है, जिसमें गर्म बालू रेत और अंगारे भरे हुए हैं। जो लोग दूसरे जीवों को जलाते हैं, वे इस कुएं में गिराए जाते हैं।
15. काकोल- यह पीब और कीड़ों से भरा नर्क है। जो लोग छुप-छुप कर अकेले ही मिठाई खाते हैं, दूसरों को नहीं देते, वे इस नर्क में लाए जाते हैं।
16. कुड्मल- यह मूत्र, पीब और विष्ठा (उल्टी) से भरा है। जो लोग दैनिक जीवन में पंचयज्ञों ( ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्य यज्ञ) का अनुष्ठान नहीं करते वे इस नर्क में आते हैं।
17. महाभीम- यह नर्क बदबूदार मांस और रक्त से भरा है। जो लोग ऐसी चीजें खाते हैं, जिनका शास्त्रों ने निषेध बताया है, वो लोग इस नर्क में गिरते हैं।
18. महावट- इस नर्क में मुर्दे और कीड़े भरे हैं, जो लोग अपनी लड़कियों को बेचते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।
19. तिलपाक- यहां दूसरों को सताने, पीड़ा देने वाले लोगों को तिल की तरह पेरा जाता है। जैसे तिल का तेल निकाला जाता है, ठीक उसी तरह।
20. तैलपाक- इस नर्क में खौलता हुआ तेल भरा है। जो लोग मित्रों या शरणागतों की हत्या करते हैं, वे यहां इस तेल में तले जाते हैं।
21. वज्रकपाट- यहां वज्रों की पूरी श्रंखला बनी है। जो लोग दूध बेचने का व्यवसाय करते हैं, वे यहां प्रताड़ना पाते हैं।
22. निरुच्छवास- इस नर्क में अंधेरा है, यहां वायु नहीं होती। जो लोग दिए जा रहे दान में विघ्न डालते हैं वे यहां फेंके जाते हैं।
23. अंगारोपच्य- यह नर्क अंगारों से भरा है। जो लोग दान देने का वादा करके भी दान देने से मुकर जाते हैं। वे यहां जलाए जाते हैं।
24. महापायी- यह नर्क हर तरह की गंदगी से भरा है। हमेशा असत्य बोलने वाले यहां औंधे मुंह गिराए जाते हैं।
25. महाज्वाल- इस नर्क में हर तरफ आग है। जो लोग हमेशा ही पाप में लगे रहते हैं वे इसमें जलाए जाते हैं।
26. गुड़पाक- यहां चारों ओर गरम गुड़ के कुंड हैं। जो लोग समाज में वर्ण संकरता फैलाते हैं, वे इस गुड़ में पकाए जाते हैं।
27. क्रकच- इस नर्क में तीखे आरे लगे हैं। जो लोग ऐसी महिलाओं से संभोग करते हैं, जिसके लिए शास्त्रों ने निषेध किया है, वे लोग इन्हीं आरों से चीरे जाते हैं।
28. क्षुरधार- यह नर्क तीखे उस्तरों से भरा है। ब्राह्मणों की भूमि हड़पने वाले यहां काटे जाते हैं।
29. अम्बरीष- यहां प्रलय अग्रि के समान आग जलती है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, वे इस आग में जलाए जाते हैं।
30. वज्रकुठार- यह नर्क वज्रों से भरा है। जो लोग पेड़ काटते हैं वे यहां लंबे समय तक वज्रों से पीटे जाते हैं।
31. परिताप- यह नर्क भी आग से जल रहा है। जो लोग दूसरों को जहर देते हैं या मधु (शहद) की चोरी करते हैं, वे यहां जलाए जाते हैं।
32. काल सूत्र- यह वज्र के समान सूत से बना है। जो लोग दूसरों की खेती नष्ट करते हैं। वे यहां सजा पाते हैं।
33. कश्मल- यह नर्क नाक और मुंह की गंदगी से भरा होता है। जो लोग मांसाहार में ज्यादा रुचि रखते हैं, वे यहां गिराए जाते हैं।
34. उग्रगंध- यह लार, मूत्र, विष्ठा और अन्य गंदगियों से भरा नर्क है। जो लोग पितरों को पिंडदान नहीं करते, वे यहां लाए जाते हैं।
35. दुर्धर- यह नर्क जौक और बिच्छुओं से भरा है। सूदखोर और ब्याज का धंधा करने वाले इस नर्क में भेजे जाते हैं।
36. वज्रमहापीड- यहां लोहे के भारी वज्र से मारा जाता है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, किसी प्राणी की हत्या कर उसे खाते हैं, दूसरों के आसन, शय्या और वस्त्र चुराते हैं, जो दूसरों के फल चुराते हैं, धर्म को नहीं मानते ऐसे सारे लोग यहां लाए जाते हैं।

➡ : उन कामों के बारे में जानिए, जिन्हें करने से नर्क जाना पड़ता है।
1. जो कुएं, तालाब, प्याऊ और मार्ग आदि को हानि पहुंचाते हैं, ऐसे दुष्ट नरक में जाते हैं।
2. आत्महत्या, स्त्री हत्या, गर्भ हत्या, ब्रह्म हत्या, गौ हत्या करने वाला, झूठी गवाही देने वाला, कन्या को बेचने वाला, झूठ बोलने वाले लोग नर्क में जाते हैं।
3. जो लोग भगवान शिव और विष्णु का चिंतन नहीं करते, उन्हें नर्क में जाना पड़ता है।
4. ऋषियों, सतियों और वेदों की निंदा करने वाले लोग सदैव नर्क में ही जाते हैं।
5. भूख-प्यास से थक कर जो भिखारी किसी के घर जाता हो और उसे वहां से अपमानित होकर लौटना पड़े, तो ऐसे याचक (मांगने वाला) का अपमान करने वाले नरक में जाते हैं।
6. जो शराब, मांस, गीत, जुआं आदि व्यसनों में ही दिन-रात लगे रहते हैं, ऐसे लोगों को नरक ही प्राप्त होता है।
7. जो अपनी पत्नी, बच्चों, नौकरों और मेहमानों को खिलाए बिना ही खाते हैं और पितरों तथा देवताओं की पूजा छोड़ देते हैं, ऐसे लोग नरक में जाते हैं।
8. दूसरों का धन हड़पने वाले, दूसरों के गुणों में दोष देखने वाले तथा दूसरों से ईष्र्या करने वाले नरक में जाते हैं।
9. जो अनाथ, गरीब, रोगी, बूढ़े और दयनीय लोगों पर दया नहीं करता, वह नरक में जाता है।
10. ब्राह्मण होकर शराब व मांस का सेवन करने वाला, ब्राह्मण की जीविका नष्ट करने वाला और दूसरों की संपत्ति का हरण करने वाला, ये सभी नर्क को ही प्राप्त होते हैं।

➡ :इन नरकों से बचने का एक मात्र हरि नाम ही सहारा है. हरि नाम जितना ले सकते हैं लें प्रेम से बोलिए ''जय श्री हरी'' ''जय श्री कृष्ण'' 🌹👏 🌞🌞🌞.

बिल्व पत्र की विशेषता

बिल्व पत्र की विशेषता
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भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यानी बेल पत्र का विशेष महत्व है। महादेव एक बेलपत्र अर्पण करने से भी प्रसन्न हो जाते है, इसलिए तो उन्हें आशुतोष भी कहा जाता है।

बिल्व तथा श्रीफल नाम से प्रसिद्ध  यह फल बहुत ही काम का है। यह जिस पेड़ पर लगता है वह शिवद्रुम भी कहलाता है। बिल्व का पेड़ संपन्नता का प्रतीक, बहुत पवित्र तथा समृद्धि देने वाला है।

बेल के पत्ते शंकर जी  का आहार माने गए हैं, इसलिए भक्त लोग बड़ी श्रद्धा से इन्हें महादेव के ऊपर चढ़ाते हैं। शिव की पूजा के लिए बिल्व-पत्र बहुत ज़रूरी माना जाता है। शिव-भक्तों का विश्वास है कि पत्तों के त्रिनेत्रस्वरूप् तीनों पर्णक शिव के तीनों नेत्रों को विशेष प्रिय हैं।

भगवान शंकर का प्रिय
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भगवान शंकर को बिल्व पत्र बेहद प्रिय हैं। भांग धतूरा और बिल्व पत्र से प्रसन्न होने वाले केवल शिव ही हैं। शिवरात्रि के अवसर पर बिल्वपत्रों से विशेष रूप से शिव की पूजा की जाती है। तीन पत्तियों वाले बिल्व पत्र आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, किंतु कुछ ऐसे बिल्व पत्र भी होते हैं जो दुर्लभ पर चमत्कारिक और अद्भुत होते हैं।

बिल्वाष्टक और शिव पुराण
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बिल्व पत्र का भगवान शंकर के पूजन में विशेष महत्व है जिसका प्रमाण शास्त्रों में मिलता है। बिल्वाष्टक और शिव पुराण में इसका स्पेशल उल्लेख है। अन्य कई ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। भगवान शंकर एवं पार्वती को बिल्व पत्र चढ़ाने का विशेष महत्व है।

मां भगवती को बिल्व पत्र
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श्रीमद् देवी भागवत में स्पष्ट वर्णन है कि जो व्यक्ति मां भगवती  को बिल्व पत्र अर्पित करता है वह कभी भी किसी भी परिस्थिति में दुखी नहीं होता। उसे हर तरह की सिद्धि प्राप्त होती है और कई जन्मों के पापों से मुक्ति मिलती है और वह भगवान भोले नाथ का प्रिय भक्त हो जाता है। उसकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं और अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है।

बिल्व पत्र के प्रकार
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बिल्व पत्र चार प्रकार के होते हैं – अखंड बिल्व पत्र, तीन पत्तियों के बिल्व पत्र, छः से 21 पत्तियों तक के बिल्व पत्र और श्वेत बिल्व पत्र। इन सभी बिल्व पत्रों का अपना-अपना आध्यात्मिक महत्व है। आप हैरान हो जाएंगे ये जानकर की कैसे ये बेलपत्र आपको भाग्यवान बना सकते हैं और लक्ष्मी कृपा दिला सकते हैं।

अखंड बिल्व पत्र
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इसका विवरण बिल्वाष्टक में इस प्रकार है – ‘‘अखंड बिल्व पत्रं नंदकेश्वरे सिद्धर्थ लक्ष्मी’’। यह अपने आप में लक्ष्मी सिद्ध है। एकमुखी रुद्राक्ष के समान ही इसका अपना विशेष महत्व है। यह वास्तुदोष का निवारण भी करता है। इसे गल्ले में रखकर नित्य पूजन करने से व्यापार में चैमुखी विकास होता है।

तीन पत्तियों वाला बिल्व पत्र
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इस बिल्व पत्र के महत्व का वर्णन भी बिल्वाष्टक में आया है जो इस प्रकार है- ‘‘त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम् त्रिजन्म पाप सहारं एक बिल्वपत्रं शिवार्पणम’’ यह तीन गणों से युक्त होने के कारण भगवान शिव को प्रिय है। इसके साथ यदि एक फूल धतूरे का चढ़ा दिया जाए, तो फलों  में बहुत वृद्धि होती है।

इस तरह बिल्व पत्र अर्पित करने से भक्त को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। रीतिकालीन कवि ने इसका वर्णन इस प्रकार किया है- ‘‘देखि त्रिपुरारी की उदारता अपार कहां पायो तो फल चार एक फूल दीनो धतूरा को’’ भगवान आशुतोष त्रिपुरारी भंडारी सबका भंडार भर देते हैं।

आप भी फूल चढ़ाकर इसका चमत्कार स्वयं देख सकते हैं और सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। तीन पत्तियों वाले बिल्व पत्र में अखंड बिल्व पत्र भी प्राप्त हो जाते हैं। कभी-कभी एक ही वृक्ष पर चार, पांच, छह पत्तियों वाले बिल्व पत्र भी पाए जाते हैं। परंतु ये बहुत दुर्लभ हैं।

10 छह से लेकर 21 पत्तियों वाले बिल्व पत्र
ये मुख्यतः नेपाल  में पाए जाते हैं। पर भारत में भी दक्षिण में कहीं-कहीं मिलते हैं। जिस तरह रुद्राक्ष कई मुखों वाले होते हैं उसी तरह बिल्व पत्र भी कई पत्तियों वाले होते हैं।

श्वेत बिल्व पत्र
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जिस तरह सफेद सांप, सफेद टांक, सफेद आंख, सफेद दूर्वा आदि होते हैं उसी तरह सफेद बिल्वपत्र भी होता है। यह प्रकृति  की अनमोल देन है। इस बिल्व पत्र के पूरे पेड़ पर श्वेत पत्ते पाए जाते हैं। इसमें हरी पत्तियां नहीं होतीं। इन्हें भगवान शंकर को अर्पित करने का विशेष महत्व है।

कैसे आया बेल वृक्ष
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बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में ‘स्कंदपुराण’ में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ। इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी का वास माना गया है।

बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्र
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बिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-

अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा।
गृह्यामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥

अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।

पत्तियां कब न तोड़ें
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विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-
सोमवार के दिन चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को। संक्रांति के पर्व पर।

अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे ।
बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥
(लिंगपुराण)

अर्थ
अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।

क्या चढ़ाया गया बिल्व-पत्र भी चढ़ा सकते हैं
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शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।

अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:।
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥
(स्कन्दपुराण, आचारेन्दु)

अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।

विभिन्न रोगों की कारगर दवा
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बिल्व-पत्र-बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।

पूजन में महत्व
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वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है। भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दु:ख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वत: प्रेरित करती है। पूजा में चढ़ाने का मंत्र-भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र बहुत पौराणिक है।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥

अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।

रुद्राष्टाध्यायी के इस मन्त्र को बोलकर बिल्वपत्र चढ़ाने का विशेष महत्त्व एवं फल है।
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नमो बिल्ल्मिने च कवचिने च नमो वर्म्मिणे च वरूथिने चनमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुब्भ्याय चा हनन्न्याय च नमो घृश्णवे॥
दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनम्‌ पापनाशनम्‌। अघोर पाप संहारं बिल्व पत्रं शिवार्पणम्‌॥त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुधम्‌। त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्‌॥
अखण्डै बिल्वपत्रैश्च पूजये शिव शंकरम्‌। कोटिकन्या महादानं बिल्व पत्रं शिवार्पणम्‌॥गृहाण बिल्व पत्राणि सपुश्पाणि महेश्वर। सुगन्धीनि भवानीश शिवत्वंकुसुम प्रिय।
🙏🙏🙏🙏🙏