Tuesday, June 26, 2018

// दानवीर कर्ण का एक पाप // एक पाप भी भारी पड़ जाती है। // (कथा जरूर पढ़ें) *जब श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध पश्चात् लौटे तो रोष में भरी रुक्मिणी ने उनसे पूछा.., " बाकी सब तो ठीक था किंतु आपने द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह जैसे धर्मपरायण लोगों के वध में क्यों साथ दिया?" . श्री कृष्ण ने उत्तर दिया.., "ये सही है की उन दोनों ने जीवन पर्यंत धर्म का पालन किया किन्तु उनके किये एक पाप ने उनके सारे पुण्यों को हर लिया " *"वो कौनसे पाप थे?"* श्री कृष्ण ने कहा : "जब भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था तब ये दोनों भी वहां उपस्थित थे ,और बड़े होने के नाते ये दुशासन को आज्ञा भी दे सकते थे किंतु इन्होंने ऐसा नहीं किया *उनका इस एक पाप से बाकी,* *धर्मनिष्ठता छोटी पड गई"* . रुक्मिणी ने पुछा, "और कर्ण? वो अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था ,कोई उसके द्वार से खाली हाथ नहीं गया उसकी क्या गलती थी?" . श्री कृष्ण ने कहा, "वस्तुतः वो अपनी दानवीरता के लिए विख्यात था और उसने कभी किसी को ना नहीं कहा, किन्तु जब अभिमन्यु सभी युद्धवीरों को धूल चटाने के बाद युद्धक्षेत्र में आहत हुआ भूमि पर पड़ा था तो उसने कर्ण से, जो उसके पास खड़ा था, पानी माँगा ,कर्ण जहाँ खड़ा था उसके पास पानी का एक गड्ढा था किंतु कर्ण ने मरते हुए अभिमन्यु को पानी नहीं दिया इसलिये उसका जीवन भर दानवीरता से कमाया हुआ पुण्य नष्ट हो गया। बाद में उसी गड्ढे में उसके रथ का पहिया फंस गया और वो मारा गया" . *---------------------------* . अक्सर ऐसा होता है की हमारे आसपास कुछ गलत हो रहा होता है और हम कुछ नहीं करते । हम सोचते हैं की इस पाप के भागी हम नहीं हैं किंतु मदद करने की स्थिति में होते हुए भी कुछ ना करने से हम उस पाप के उतने ही हिस्सेदार हो जाते हैं । . किसी स्त्री, बुजुर्ग, निर्दोष,कमज़ोर या बच्चे पर अत्याचार होते देखना और कुछ ना करना हमें पाप का भागी बनाता है। सड़क पर दुर्घटना में घायल हुए व्यक्ति को लोग नहीं उठाते हैं क्योंकि वो समझते है की वो पुलिस के चक्कर में फंस जाएंगे| आपके अधर्म का एक क्षण सारे जीवन के कमाये धर्म को नष्ट कर सकता है। *जय श्री राधे कृष्णा* *--------------------------* // कथा शेयर जरूर करें। //

// दानवीर कर्ण का एक पाप //
एक पाप भी भारी पड़ जाती है। // (कथा जरूर पढ़ें)

*जब श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध पश्चात् लौटे तो रोष में भरी रुक्मिणी ने उनसे पूछा..,

" बाकी सब तो ठीक था किंतु आपने द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह जैसे धर्मपरायण लोगों के वध में क्यों साथ दिया?"
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श्री कृष्ण ने उत्तर दिया..,
"ये सही है की उन दोनों ने जीवन पर्यंत धर्म का पालन किया किन्तु उनके किये एक पाप ने उनके सारे पुण्यों को हर लिया "

        *"वो कौनसे पाप थे?"*

श्री कृष्ण ने कहा :
"जब भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था तब ये दोनों भी वहां उपस्थित थे ,और बड़े होने के नाते ये दुशासन को आज्ञा भी दे सकते थे किंतु इन्होंने ऐसा नहीं किया

    *उनका इस एक पाप से बाकी,*
         *धर्मनिष्ठता छोटी पड गई"*
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रुक्मिणी ने पुछा,
"और कर्ण?
वो अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था ,कोई उसके द्वार से खाली हाथ नहीं गया उसकी क्या गलती थी?"
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श्री कृष्ण ने कहा, "वस्तुतः वो अपनी दानवीरता के लिए विख्यात था और उसने कभी किसी को ना नहीं कहा,

किन्तु जब अभिमन्यु सभी युद्धवीरों को धूल चटाने के बाद युद्धक्षेत्र में आहत हुआ भूमि पर पड़ा था तो उसने कर्ण से, जो उसके पास खड़ा था, पानी माँगा ,कर्ण जहाँ खड़ा था उसके पास पानी का एक गड्ढा था किंतु कर्ण ने मरते हुए अभिमन्यु को पानी नहीं दिया

इसलिये उसका जीवन भर दानवीरता से कमाया हुआ पुण्य नष्ट हो गया। बाद में उसी गड्ढे में उसके रथ का पहिया फंस गया और वो मारा गया"
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अक्सर ऐसा होता है की हमारे आसपास कुछ गलत हो रहा होता है और हम कुछ नहीं करते । हम सोचते हैं की इस पाप के भागी हम नहीं हैं किंतु मदद करने की स्थिति में होते हुए भी कुछ ना करने से हम उस पाप के उतने ही हिस्सेदार हो जाते हैं ।
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किसी स्त्री, बुजुर्ग, निर्दोष,कमज़ोर या बच्चे पर अत्याचार होते देखना और कुछ ना करना हमें पाप का भागी बनाता है। सड़क पर दुर्घटना में घायल हुए व्यक्ति को लोग नहीं उठाते हैं क्योंकि वो समझते है की वो पुलिस के चक्कर में फंस जाएंगे|

आपके अधर्म का एक क्षण सारे जीवन के कमाये धर्म को नष्ट कर सकता है।
             *जय श्री राधे कृष्णा*
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Saturday, June 23, 2018

स्नान कब ओर केसे करे घर की समृद्धि बढाना हमारे हाथमे है सुबह के स्नान को धर्म शास्त्र में चार उपनाम दिए है। . 1* *मुनि स्नान। जो सुबह 4 से 5 के बिच किया जाता है। . 2* *देव स्नान। जो सुबह 5 से 6 के बिच किया जाता है। . 3* *मानव स्नान। जो सुबह 6 से 8 के बिच किया जाता है। . 4* *राक्षसी स्नान। जो सुबह 8 के बाद किया जाता है। . >>मुनि स्नान सर्वोत्तम है। >>देव स्नान उत्तम है। >>मानव स्नान समान्य है। राक्षसी स्नान धर्म में निषेध है। . किसी भी मानव को 8 बजे के बाद स्नान नही करना चाहिए। . *मुनि स्नान .......* 🏻घर में सुख ,शांति ,समृद्धि, विध्या , बल , आरोग्य , चेतना , प्रदान करता है। . *देव स्नान ......* आप के जीवन में यश , किर्ती , धन वैभव,सुख ,शान्ति, संतोष , प्रदान करता है। . *मानव स्नान.....* 🏻काम में सफलता ,भाग्य ,अच्छे कर्मो की सूझ ,परिवार में एकता , मंगल मय , प्रदान करता है। . *राक्षसी स्नान.....* 🏻 दरिद्रता , हानि , कलेश ,धन हानि , परेशानी, प्रदान करता है । . किसी भी मनुष्य को 8 के बाद स्नान नही करना चाहिए। . पुराने जमाने में इसी लिए सभी सूरज निकलने से पहले स्नान करते थे। *खास कर जो घर की स्त्री होती थी।* चाहे वो स्त्री माँ के रूप में हो,पत्नी के रूप में हो,बेहन के रूप में हो। . घर के बडे बुजुर्ग यही समझाते सूरज के निकलने से पहले ही स्नान हो जाना चाहिए। . ऐसा करने से धन ,वैभव लक्ष्मी, आप के घर में सदैव वास करती है। . उस समय...... एक मात्र व्यक्ति की कमाई से पूरा हरा भरा पारिवार पल जाता था , और आज मात्र पारिवार में चार सदस्य भी कमाते है तो भी पूरा नही होता। . उस की वजह हम खुद ही है । पुराने नियमो को तोड़ कर अपनी सुख सुविधा के लिए नए नियम बनाए है। . प्रकृति ......का नियम है, जो भी उस के नियमो का पालन नही करता ,उस का दुष्टपरिणाम सब को मिलता है। . इसलिए अपने जीवन में कुछ नियमो को अपनाये । ओर उन का पालन भी करे। . आप का भला हो ,आपके अपनों का भला हो। . मनुष्य अवतार बार बार नही मिलता। . अपने जीवन को सुखमय बनाये।

स्नान कब ओर केसे करे घर की समृद्धि बढाना हमारे हाथमे है
सुबह के स्नान को धर्म शास्त्र में चार उपनाम दिए है।
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1* *मुनि स्नान।
जो सुबह 4 से 5 के बिच किया जाता है।
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2* *देव स्नान।
जो सुबह 5 से 6 के बिच किया जाता है।
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3* *मानव स्नान।
जो सुबह 6 से 8 के बिच किया जाता है।
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4* *राक्षसी स्नान।
जो सुबह 8 के बाद किया जाता है।
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>>मुनि स्नान सर्वोत्तम है।
>>देव स्नान उत्तम है।
>>मानव स्नान समान्य है।
राक्षसी स्नान धर्म में निषेध है।
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किसी भी मानव को 8 बजे के बाद स्नान नही करना चाहिए।
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*मुनि स्नान .......*
🏻घर में सुख ,शांति ,समृद्धि, विध्या , बल , आरोग्य , चेतना , प्रदान करता है।
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*देव स्नान ......*
आप के जीवन में यश , किर्ती , धन वैभव,सुख ,शान्ति, संतोष , प्रदान करता है।
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*मानव स्नान.....*
🏻काम में सफलता ,भाग्य ,अच्छे कर्मो की सूझ ,परिवार में एकता , मंगल मय , प्रदान करता है।
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*राक्षसी स्नान.....*
🏻 दरिद्रता , हानि , कलेश ,धन हानि , परेशानी, प्रदान करता है ।
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किसी भी मनुष्य को 8 के बाद स्नान नही करना चाहिए।
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पुराने जमाने में इसी लिए सभी सूरज निकलने से पहले स्नान करते थे।
*खास कर जो घर की स्त्री होती थी।* चाहे वो स्त्री माँ के रूप में हो,पत्नी के रूप में हो,बेहन के रूप में हो।
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घर के बडे बुजुर्ग यही समझाते सूरज के निकलने से पहले ही स्नान हो जाना चाहिए।
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ऐसा करने से धन ,वैभव लक्ष्मी, आप के घर में सदैव वास करती है।
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उस समय...... एक मात्र व्यक्ति की कमाई से पूरा हरा भरा पारिवार पल जाता था , और आज मात्र पारिवार में चार सदस्य भी कमाते है तो भी पूरा नही होता।
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उस की वजह हम खुद ही है । पुराने नियमो को तोड़ कर अपनी सुख सुविधा के लिए नए नियम बनाए है।
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प्रकृति ......का नियम है, जो भी उस के नियमो का पालन नही करता ,उस का दुष्टपरिणाम सब को मिलता है।
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इसलिए अपने जीवन में कुछ नियमो को अपनाये । ओर उन का पालन भी करे।
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आप का भला हो ,आपके अपनों का भला हो।
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मनुष्य अवतार बार बार नही मिलता।
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अपने जीवन को सुखमय बनाये।

क्या आप इस क्रम को मानते हैं:- जड़, वृक्ष, प्राणी, मानव, पितर, देवी-देवता, भगवान और ईश्वर। सबसे बड़ा ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा होता है। वेदों में जिसे ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) कहा गया है। ब्रह्म का अर्थ है विस्तार, फैलना, अनंत, महाप्रकाश। प्रत्येक धर्म में देवी और देवता होते हैं यह अलग बात है कि हिंदू अपने देवी-देवताओं को पूजते हैं जबकि दूसरे धर्म के लोग नहीं। अत: यह कहना की हिन्दू धर्म सर्वेश्वरदावी धर्म है गलत होगा। पहले धर्म को पढ़े, समझे फिर कुछ कहें। कुछ विद्वान कहते हैं कि हिन्दू देवी या देवताओं को 33 कोटि अर्थात प्रकार में रखा गया है और कुछ कहते हैं कि यह सही नहीं है। दरअसल वेदों में 33 कोटि देवताओं का जिक्र किया है। धर्म गुरुओं और अनेक बौद्धिक वर्ग ने इस कोटि शब्द के दो प्रकार से अर्थ निकाले हैं। कोटि शब्द का एक अर्थ करोड़ है और दूसरा प्रकार अर्थात श्रेणी भी। तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो कोटि का दूसरा अर्थ इस विषय में अधिक सत्य प्रतीत होता है अर्थात तैंतीस प्रकार की श्रेणी या प्रकार के देवी-देवता। परन्तु शब्द व्याख्या, अर्थ और सबसे ऊपर अपनी-अपनी समझ और बुद्धि के अनुरूप मान्यताए अलग-अलग हो गयीं। वैदिक विद्वानों अनुसार:- वेदों में जिन देवताओं का उल्लेख किया गया है उनमें से अधिकतर प्राकृतिक शक्तियों के नाम है जिन्हें देव कहकर संबोधित किया गया है। दरअसल वे देव नहीं है। देव कहने से उनका महत्व प्रकट होता है। उक्त प्राकृतिक शक्तियों को मुख्‍यत: आदित्य समूह, वसु समूह, रुद्र समूह, मरुतगण समूह, प्रजापति समूह आदि समूहों में बांटा गया हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ जगह पर वैदिक ऋषि इन प्रकृतिक शक्तियों की स्तुति करते हैं और कुछ जगह पर वे अपने ही किसी महान पुरुष की इन प्रकृतिक शक्तियों से तुलना करके उनकी स्तुति करते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर इंद्र नामक एक बिजली और एक बादल भी होता है। वहीं, इंद्र नाम से आर्यों का एक वीर राजा भी है जोकि बादलों के देश में रहता है और आकाशमार्ग से आता-जाता है। वह आर्यों की हर तरह से रक्षा करने के लिए रह समय उपस्थित हो जाता है। शक्तिशाली होने के कारण उसकी तुलना बिजली और बादल के समान की जाती है।...अत: शब्दों का अर्थ देशकाल, परिस्थिति के अनुसार ग्रहण करना होता है। एक शब्द के कई-कई अर्थ होते हैं। वैदिक विद्वानों अनुसार 33 प्रकार के अव्यय या पदार्थ होते हैं जिन्हें देवों की संज्ञा दी गई है। ये 33 प्रकार इस अनुसार हैं:- प्रारंभ ने ऋषियों ने 33 प्रकार के अव्यय जाने थे। परमात्मा ने जो 33 अव्यय बनाए हैं वैदिक ऋषि उसी की बात कर रहे हैं। उक्त 33 अव्यवों से ही प्रकृति और जीवन का संचालन होता है। वेदों अनुसार हमें इन 33 पदार्थों या अव्ययों को महत्व देना चाहिए। इनका ध्यान करना चाहिए तो ये पुष्ट हो जाते हैं। 1.इन 33 में से आठ वसु है। वसु अर्थात हमें वसाने वाले आत्मा का जहां वास होता है। ये आठ वसु हैं: धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य और नक्षत्र। ये आठ वसु प्रजा को वसाने वाले अर्थात धारण या पालने वाले हैं। 2.इसी तरह 11 रुद्र आते हैं।दरअसल यह रुद्र शरीर के अव्यय है। जब यह अव्यय एक-एक करके शरीर से निकल जाते हैं तो यह रोदन कराने वाले होते हैं। अर्थात जब मनुष्य मर जाता है तो उसके भीतर के यह सभी 11 रुद्र निकल जाते हैं जिनके निकलने के बाद उसे मृत मान लिया जाता है। तब उसके सगे-संबंधी उसके समक्ष रोते हैं। शरीर से निकलने वाले इन रुद्रों ने नाम हैं:- प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कुर्म, किरकल, देवदत्त और धनंजय। प्रथम पांच प्राण और दूसरे पांच उपप्राण हैं अंत में 11वां जीवात्मा हैं। ये 11 जब शरीर से निकल जाते हैं तो सगे-संबंधी रोने लग जाते हैं। इसीलिए इन्हें कहते हैं रुद्र। रुद्र अर्थात रुलाने वाला। 8 वसु और 11 रुद्र मिलकर हो गए उन्नीस। 3.12 आदित्य होते हैं।आदित्य सूर्य को कहते हैं। भारतीय कैलेंडर सूर्य पर ही आधारित है। समय के 12 माह को 12 आदित्य कहते हैं। इन्हें आदित्य इसलिए कहते हैं क्योंकि यह हमारी आयु को हरते हैं। जैसे-जैसे समय बढ़ता जाता है हमारी आयु घटती जाती है। ये बारह आदिय 12 माह के नाम हैं। सूर्य की 12 रश्मियों को भी इन्हीं की श्रेणी में रखा गया है। 8 वसु, 11 रुद्र और 12 आदित्य को मिलाकर कुल हुए 31 अव्यय। 4.32वां है इंद्र।इंद्र का अर्थ बिजली या ऊर्जा। 33वां है यज्ज। यज्ज अर्थात प्रजापति, जिससे वायु, दृष्टि, जल और शिल्प शास्त्र हमारा उन्नत होता है, औषधियां पैदा होती है। ये 33 कोटी अर्थात 33 प्रकार के अव्यव हैं जिन्हें देव कहा गया। देव का अर्थ होता है दिव्य गुणों से युक्त। हमें ईश्वर ने जिस रूप में यह 33 पदार्थ दिए हैं उसी रूप में उन्हें शुद्ध, निर्मल और पवित्र बनाए रखना चाहिए। *उपरोक्त मत का खंडन :* ================= पहले तो कोटि शब्द को समझें। कोटि का अर्थ प्रकार लेने से कोई भी व्यक्ति 33 देवता नहीं गिना पाएगा। कारण, स्पष्ट है कि कोटि यानी प्रकार यानी श्रेणी। अब यदि हम कहें कि आदित्य एक श्रेणी यानी प्रकार यानी कोटि है, तो यह कह सकते हैं कि आदित्य की कोटि में 12 देवता आते हैं जिनके नाम अमुक-अमुक हैं। लेकिन आप ये कहें कि सभी 12 अलग-अलग कोटि हैं, तो जरा हमें बताएं कि पर्जन्य, इन्द्र और त्वष्टा की कोटि में कितने सदस्य हैं? ऐसी गणना ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि कोटि कोई हो सकता है तो वह आदित्य है। आदित्य की कोटि में 12 सदस्य, वसु की कोटि या प्रकार में 8 सदस्य, रुद्र की कोटी में 11 सदस्य, अन्य तो कोटी इंद्र और यज्ज। इस तरह देखा जाए तो कुल 5 कोटी ही हुई। तब 33 कोटी कहने का क्या तात्पर्य? द्वितीय, उन्हें कैसे ज्ञात कि यहां कोटि का अर्थ प्रकार ही होगा, करोड़ नहीं? प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, योनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानी श्रेणियां हैं जिसमें इतने-इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। देव योनि में मात्र यही 33 देव नहीं आते। इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां देवों में होती हैं जिनमें से 2-3 हजार के नाम तो प्रत्यक्ष अंगुली पर गिनाए जा सकते हैं। प्रमुख देवताओं के अलावा भी अन्य कई देवदूत हैं जिनके अलग-अलग कार्य हैं और जो मानव जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। इनमें से कई ऐसे देवता हैं जो आधे पशु और आधे मानव रूप में हैं। आधे सर्प और आधे मानव रूप में हैं। माना जाता है कि सभी देवी और देवता धरती पर अपनी शक्ति से कहीं भी आया-जाया करते थे। यह भी मान्यता है कि संभवत: मानवों ने इन्हें प्रत्यक्ष रूप से देखा है और इन्हें देखकर ही इनके बारे में लिखा है। अज एकपाद' और 'अहितर्बुध्न्य' दोनों आधे पशु और आधे मानवरूप हैं। मरुतों की माता की 'चितकबरी गाय' है। एक इन्द्र की 'वृषभ' (बैल) के समान था। *पौराणिक मत :* =============== निश्चित ही प्राकृतिक शक्तियों के कई प्रकार हो सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भुलना चाहिए की इन प्राकृतिक शक्तियों के नाम हमारे देवताओं के नाम पर ही रखे गए हैं। जैसे चंद्र नामक एक देव है और चंद्र नामक एक ग्रह भी है। इस ग्रह का नामकरण चंद्र नामक देव के नाम पर ही रखा गया है। इस तरह के देवों का उनके नाम के ग्रहों पर आधिपत्य रहा है। *इसी तरह ये रहे प्रमुख 33 देवता:-* 12 आदित्य:- 1.अंशुमान, 2.अर्यमन, 3.इन्द्र, 4.त्वष्टा, 5.धातु, 6.पर्जन्य, 7.पूषा, 8.भग, 9.मित्र, 10.वरुण, 11.विवस्वान और 12.विष्णु। 8 वसु:-1.आप, 2.ध्रुव, 3.सोम, 4.धर, 5.अनिल, 6.अनल, 7.प्रत्यूष और 8. प्रभाष। 11 रुद्र:-1.शम्भु, 2.पिनाकी, 3.गिरीश, 4.स्थाणु, 5.भर्ग, 6.भव, 7.सदाशिव, 8.शिव, 9.हर, 10.शर्व और 11.कपाली। 2 अश्विनी कुमार:-1.नासत्य और 2.द्स्त्र। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। कुल : 12+8+11+2=33 इसके अलावा ये भी हैं देवता:- 49 मरुतगण: मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।-(ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं। 7 मरुतों के नाम निम्न हैं-1.आवह, 2.प्रवह, 3.संवह, 4.उद्वह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह। यह वायु के नाम भी है। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं। 12 साध्यदेव :अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं कहीं इस तरह भी मिलते हैं:- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु। 64 अभास्वर :तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं- अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं। 12 यामदेव :यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं। 10 विश्वदेव : पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है। 220 महाराजिक : 30 तुषित : 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे... पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है। बौद्ध धर्मग्रंथों में भी वसुबंधु बोधिसत्व तुषित के नाम का उल्लेख मिलता है। तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है। अन्य देव-ब्रह्मा (प्रजापति), विष्णु (नारायण), शिव (रुद्र), गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, हिरण्यगर्भ, शनि, सोम, ऋभुः, ऋत, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, इन्द्राग्नि, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य, अपांनपात, त्रिप, वामदेव, कुबेर, मातृक, मित्रावरुण, ईशान, चंद्रदेव, बुध, शनि आदि। अन्य देवी-दुर्गा, सती-पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, दस महाविद्या, आदि। *निष्कर्ष :* वेदों के कोटि शब्द को अधिकतर लोगों ने करोड़ समझा और यह मान लिया गया कि 33 करोड़ देवता होते हैं। लेकिन यह सच नहीं है। यह भी सच नहीं है कि देवता 33 प्रकार के होते हैं। पदार्थ अलग होते हैं और देवी या देवता अलग होते हैं। यह सही है कि देवी और देवता 33 करोड़ नहीं होते हैं लेकिन 33 भी नहीं। देवी और देवताओं की संख्या करोड़ों में तो नहीं लेकिन हजारों में जरूर है और सभी का कार्य नियुक्त है....

क्या आप इस क्रम को मानते हैं:- जड़, वृक्ष, प्राणी, मानव, पितर, देवी-देवता, भगवान और ईश्वर। सबसे बड़ा ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा होता है। वेदों में जिसे ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) कहा गया है। ब्रह्म का अर्थ है विस्तार, फैलना, अनंत, महाप्रकाश। प्रत्येक धर्म में देवी और देवता होते हैं यह अलग बात है कि हिंदू अपने देवी-देवताओं को पूजते हैं जबकि दूसरे धर्म के लोग नहीं। अत: यह कहना की हिन्दू धर्म सर्वेश्वरदावी धर्म है गलत होगा। पहले धर्म को पढ़े, समझे फिर कुछ कहें।

कुछ विद्वान कहते हैं कि हिन्दू देवी या देवताओं को 33 कोटि अर्थात प्रकार में रखा गया है और कुछ कहते हैं कि यह सही नहीं है। दरअसल वेदों में 33 कोटि देवताओं का जिक्र किया है। धर्म गुरुओं और अनेक बौद्धिक वर्ग ने इस कोटि शब्द के दो प्रकार से अर्थ निकाले हैं। कोटि शब्द का एक अर्थ करोड़ है और दूसरा प्रकार अर्थात श्रेणी भी। तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो कोटि का दूसरा अर्थ इस विषय में अधिक सत्य प्रतीत होता है अर्थात तैंतीस प्रकार की श्रेणी या प्रकार के देवी-देवता। परन्तु शब्द व्याख्या, अर्थ और सबसे ऊपर अपनी-अपनी समझ और बुद्धि के अनुरूप मान्यताए अलग-अलग हो गयीं।

वैदिक विद्वानों अनुसार:-

वेदों में जिन देवताओं का उल्लेख किया गया है उनमें से अधिकतर प्राकृतिक शक्तियों के नाम है जिन्हें देव कहकर संबोधित किया गया है। दरअसल वे देव नहीं है। देव कहने से उनका महत्व प्रकट होता है। उक्त प्राकृतिक शक्तियों को मुख्‍यत: आदित्य समूह, वसु समूह, रुद्र समूह, मरुतगण समूह, प्रजापति समूह आदि समूहों में बांटा गया हैं।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ जगह पर वैदिक ऋषि इन प्रकृतिक शक्तियों की स्तुति करते हैं और कुछ जगह पर वे अपने ही किसी महान पुरुष की इन प्रकृतिक शक्तियों से तुलना करके उनकी स्तुति करते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर इंद्र नामक एक बिजली और एक बादल भी होता है। वहीं, इंद्र नाम से आर्यों का एक वीर राजा भी है जोकि बादलों के देश में रहता है और आकाशमार्ग से आता-जाता है। वह आर्यों की हर तरह से रक्षा करने के लिए रह समय उपस्थित हो जाता है। शक्तिशाली होने के कारण उसकी तुलना बिजली और बादल के समान की जाती है।...अत: शब्दों का अर्थ देशकाल, परिस्थिति के अनुसार ग्रहण करना होता है। एक शब्द के कई-कई अर्थ होते हैं। वैदिक विद्वानों अनुसार 33 प्रकार के अव्यय या पदार्थ होते हैं जिन्हें देवों की संज्ञा दी गई है। ये 33 प्रकार इस अनुसार हैं:-

प्रारंभ ने ऋषियों ने 33 प्रकार के अव्यय जाने थे। परमात्मा ने जो 33 अव्यय बनाए हैं वैदिक ऋषि उसी की बात कर रहे हैं। उक्त 33 अव्यवों से ही प्रकृति और जीवन का संचालन होता है। वेदों अनुसार हमें इन 33 पदार्थों या अव्ययों को महत्व देना चाहिए। इनका ध्यान करना चाहिए तो ये पुष्ट हो जाते हैं।

1.इन 33 में से आठ वसु है। वसु अर्थात हमें वसाने वाले आत्मा का जहां वास होता है। ये आठ वसु हैं: धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य और नक्षत्र। ये आठ वसु प्रजा को वसाने वाले अर्थात धारण या पालने वाले हैं।

2.इसी तरह 11 रुद्र आते हैं।दरअसल यह रुद्र शरीर के अव्यय है। जब यह अव्यय एक-एक करके शरीर से निकल जाते हैं तो यह रोदन कराने वाले होते हैं। अर्थात जब मनुष्य मर जाता है तो उसके भीतर के यह सभी 11 रुद्र निकल जाते हैं जिनके निकलने के बाद उसे मृत मान लिया जाता है। तब उसके सगे-संबंधी उसके समक्ष रोते हैं।

शरीर से निकलने वाले इन रुद्रों ने नाम हैं:- प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कुर्म, किरकल, देवदत्त और धनंजय। प्रथम पांच प्राण और दूसरे पांच उपप्राण हैं अंत में 11वां जीवात्मा हैं। ये 11 जब शरीर से निकल जाते हैं तो सगे-संबंधी रोने लग जाते हैं। इसीलिए इन्हें कहते हैं रुद्र। रुद्र अर्थात रुलाने वाला। 8 वसु और 11 रुद्र मिलकर हो गए उन्नीस।

3.12 आदित्य होते हैं।आदित्य सूर्य को कहते हैं। भारतीय कैलेंडर सूर्य पर ही आधारित है। समय के 12 माह को 12 आदित्य कहते हैं। इन्हें आदित्य इसलिए कहते हैं क्योंकि यह हमारी आयु को हरते हैं। जैसे-जैसे समय बढ़ता जाता है हमारी आयु घटती जाती है। ये बारह आदिय 12 माह के नाम हैं। सूर्य की 12 रश्मियों को भी इन्हीं की श्रेणी में रखा गया है। 8 वसु, 11 रुद्र और 12 आदित्य को मिलाकर कुल हुए 31 अव्यय।

4.32वां है इंद्र।इंद्र का अर्थ बिजली या ऊर्जा। 33वां है यज्ज। यज्ज अर्थात प्रजापति, जिससे वायु, दृष्टि, जल और शिल्प शास्त्र हमारा उन्नत होता है, औषधियां पैदा होती है। ये 33 कोटी अर्थात 33 प्रकार के अव्यव हैं जिन्हें देव कहा गया। देव का अर्थ होता है दिव्य गुणों से युक्त। हमें ईश्वर ने जिस रूप में यह 33 पदार्थ दिए हैं उसी रूप में उन्हें शुद्ध, निर्मल और पवित्र बनाए रखना चाहिए।

*उपरोक्त मत का खंडन :*
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पहले तो कोटि शब्द को समझें। कोटि का अर्थ प्रकार लेने से कोई भी व्यक्ति 33 देवता नहीं गिना पाएगा। कारण, स्पष्ट है कि कोटि यानी प्रकार यानी श्रेणी। अब यदि हम कहें कि आदित्य एक श्रेणी यानी प्रकार यानी कोटि है, तो यह कह सकते हैं कि आदित्य की कोटि में 12 देवता आते हैं जिनके नाम अमुक-अमुक हैं। लेकिन आप ये कहें कि सभी 12 अलग-अलग कोटि हैं, तो जरा हमें बताएं कि पर्जन्य, इन्द्र और त्वष्टा की कोटि में कितने सदस्य हैं?

ऐसी गणना ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि कोटि कोई हो सकता है तो वह आदित्य है। आदित्य की कोटि में 12 सदस्य, वसु की कोटि या प्रकार में 8 सदस्य, रुद्र की कोटी में 11 सदस्य, अन्य तो कोटी इंद्र और यज्ज। इस तरह देखा जाए तो कुल 5 कोटी ही हुई। तब 33 कोटी कहने का क्या तात्पर्य?

द्वितीय, उन्हें कैसे ज्ञात कि यहां कोटि का अर्थ प्रकार ही होगा, करोड़ नहीं? प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, योनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानी श्रेणियां हैं जिसमें इतने-इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। देव योनि में मात्र यही 33 देव नहीं आते। इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां देवों में होती हैं जिनमें से 2-3 हजार के नाम तो प्रत्यक्ष अंगुली पर गिनाए जा सकते हैं।

प्रमुख देवताओं के अलावा भी अन्य कई देवदूत हैं जिनके अलग-अलग कार्य हैं और जो मानव जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। इनमें से कई ऐसे देवता हैं जो आधे पशु और आधे मानव रूप में हैं। आधे सर्प और आधे मानव रूप में हैं। माना जाता है कि सभी देवी और देवता धरती पर अपनी शक्ति से कहीं भी आया-जाया करते थे। यह भी मान्यता है कि संभवत: मानवों ने इन्हें प्रत्यक्ष रूप से देखा है और इन्हें देखकर ही इनके बारे में लिखा है। अज एकपाद' और 'अहितर्बुध्न्य' दोनों आधे पशु और आधे मानवरूप हैं। मरुतों की माता की 'चितकबरी गाय' है। एक इन्द्र की 'वृषभ' (बैल) के समान था।

*पौराणिक मत :*
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निश्चित ही प्राकृतिक शक्तियों के कई प्रकार हो सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भुलना चाहिए की इन प्राकृतिक शक्तियों के नाम हमारे देवताओं के नाम पर ही रखे गए हैं। जैसे चंद्र नामक एक देव है और चंद्र नामक एक ग्रह भी है। इस ग्रह का नामकरण चंद्र नामक देव के नाम पर ही रखा गया है। इस तरह के देवों का उनके नाम के ग्रहों पर आधिपत्य रहा है।

*इसी तरह ये रहे प्रमुख 33 देवता:-*

12 आदित्य:- 1.अंशुमान, 2.अर्यमन, 3.इन्द्र, 4.त्वष्टा, 5.धातु, 6.पर्जन्य, 7.पूषा, 8.भग, 9.मित्र, 10.वरुण, 11.विवस्वान और 12.विष्णु।

8 वसु:-1.आप, 2.ध्रुव, 3.सोम, 4.धर, 5.अनिल, 6.अनल, 7.प्रत्यूष और 8. प्रभाष।

11 रुद्र:-1.शम्भु, 2.पिनाकी, 3.गिरीश, 4.स्थाणु, 5.भर्ग, 6.भव, 7.सदाशिव, 8.शिव, 9.हर, 10.शर्व और 11.कपाली।

2 अश्विनी कुमार:-1.नासत्य और 2.द्स्त्र। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं।

कुल : 12+8+11+2=33

इसके अलावा ये भी हैं देवता:-

49 मरुतगण: मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।-(ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।

7 मरुतों के नाम निम्न हैं-1.आवह, 2.प्रवह, 3.संवह, 4.उद्वह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह। यह वायु के नाम भी है। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।

12 साध्यदेव :अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं कहीं इस तरह भी मिलते हैं:- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।

64 अभास्वर :तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं- अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।

12 यामदेव :यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।

10 विश्वदेव : पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है।

220 महाराजिक :

30 तुषित : 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे...

पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है। बौद्ध धर्मग्रंथों में भी वसुबंधु बोधिसत्व तुषित के नाम का उल्लेख मिलता है। तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है।

अन्य देव-ब्रह्मा (प्रजापति), विष्णु (नारायण), शिव (रुद्र), गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, हिरण्यगर्भ, शनि, सोम, ऋभुः, ऋत, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, इन्द्राग्नि, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य, अपांनपात, त्रिप, वामदेव, कुबेर, मातृक, मित्रावरुण, ईशान, चंद्रदेव, बुध, शनि आदि।

अन्य देवी-दुर्गा, सती-पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती, भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, दस महाविद्या, आदि।

*निष्कर्ष :*

वेदों के कोटि शब्द को अधिकतर लोगों ने करोड़ समझा और यह मान लिया गया कि 33 करोड़ देवता होते हैं। लेकिन यह सच नहीं है। यह भी सच नहीं है कि देवता 33 प्रकार के होते हैं। पदार्थ अलग होते हैं और देवी या देवता अलग होते हैं। यह सही है कि देवी  और देवता 33 करोड़ नहीं होते हैं लेकिन 33 भी नहीं। देवी और देवताओं की संख्या करोड़ों में तो नहीं लेकिन हजारों में जरूर है और सभी का कार्य नियुक्त है....

रामचरित मानस का एक दुर्लभ सन्देश यदि हमारा जीवन गणित के एक प्रश्न के समान है तो उसे हल करने का सूत्र (formula) क्या है ??? इसका उत्तर है कि हम दशरथ बनें, दशानन नहीं। हमें दशरथ जी की तरह अपने जीवन की गतिविधियों के सञ्चालन में, जीवनी शक्ति का आधा भाग अन्तःप्रेरणा के लिए (आत्मिक विकास के लिए) लगायें। 1/4 भाग व्यावहारिक जीवन में बुद्धि के विकास में लगायें। और शेष 1/4 भाग आत्मिक और बौद्धिक विचारों के मार्ग दर्शन में शारीरिक विकास में लगायें। यदि इस अनुपात में जीवन की गतिविधियों का सञ्चालन नहीं होता तो हम जाने अनजाने दशानन(रावण) के मार्ग पर चलकर अंततः इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का विनाश कर लेते हैं। अब प्रश्न ये उठा !!!!!!!! कि जब दशरथ दस इन्द्रियों रूपी रथ में सवार जीवात्मा हैं। और इस जीवात्मा के तीन शरीर स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर ही उनकी सुमित्रा, कैकेयी, कौशल्या आदि रानियाँ हैं। तो उनके चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न हुए। तो क्या साधना मार्ग पर, श्री सत्य सनातन धर्म के मार्ग पर हम भी यदि दशरथ जी के समान चलें , तो क्या हमारे जीवन में भी राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न जी आयेंगे??????? इसका उत्तर है कि हाँ !!!!!!!! आप के जीवन में भी दशरथ जी की तरह राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न आ सकते हैं। कैसे ????? जब आप भी श्री सत्य सनातन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार:--- (1) वर्णाश्रम धर्म का पालन करेंगे ! वर्ण व्यवस्था ! ईश्वरीय व्यवस्था है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । यह मनुष्य की प्रकृति और स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण है। जन्म के आधार पर , जाति के आधार पर नहीं। भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा है:-- चातुर्वर्ण्य म मया श्रीस्ट्यम गुण कर्म विभागशः । इस प्रकार मनुष्य को अपनी प्रकृति, स्वभाव को पहचान कर तदनुकूल कार्य करना चाहिए। चार आश्रम :-- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास । मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानी गयी है। पहले 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम में गायत्री साधना, यज्ञ, धर्म, दर्शन, गणित आदि विषयों का गुरु सान्निध्य में अध्ययन करते हुए। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक विकास में अग्रसर होना। गृहस्थ आश्रम:-- 25--50 वर्ष, गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर धर्म पूर्वक पारिवारिक उत्तरदायित्वों का पालन करना। वानप्रस्थ आश्रम:-- गृहस्थ जीवन के दायित्वों से मुक्त होकर अधिक से अधिक समय, अपने ज्ञान, विद्या,बुद्धि, सम्पदा का उपयोग समाज निर्माण में लगाना। संन्यास आश्रम:-- 75 वर्ष के बाद शेष आयु जब शरीर और इन्द्रियां अशक्त होने लगते हैं। तो ईश्वर के जप,ध्यान, पूजन, स्वाध्याय, चिंतन, मनन आदि में व्यतीत करते हुए अगले जन्म की तैयारी करना। अर्थात उम्र के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्धारण कर उसका पालन करना। (2)चार पुरुषार्थ:-- ये सुर दुर्लभ मानव जीवन चार पुरुषार्थ के लिए मिला है। सबसे पहले धर्म को जानें और पालन करें। धर्मानुकूल धन भी कमायें ।संयमित रूप से जीवन का आनंद लेने के लिए संगीत, नृत्य आदि मनोरंजन के साधनों का भी उपयोग करें। उस परमात्मा को भी रसो वै सः अर्थात वह परमात्मा रसमय है यह कहा गया है। और अंत में इस सुर दुर्लभ मानव जीवन को पाकर मोक्ष के लिए, अपनी मुक्ति के लिए भी प्रयास करना है। (3)आत्मिक विकास:-- अपने आत्मिक विकास के लिए नियमित रूप से सम्पूर्ण जीवन में साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के सिद्धांतों को अपना कर आत्मिक विकास के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना है। श्री सत्य सनातन धर्म के इन सिद्धांतों का दशरथ जी की तरह जीवन में पालन करने से चार बलों की प्राप्ति होती है। यह धरती वीरों के लिए है, कायरों केलिए नहीं। -- वीर भोग्या वसुंधरा --survival of the fittest. इस पृथ्वी पर कमजोरों को जीने का अधिकार नहीं। यह प्रकृति की व्यवस्था है। आज हिन्दू समाज श्री सत्य सनातन धर्म के इन सिद्धांतों की उपेक्षा अवहेलना के कारण ही अपनी मातृभूमि में भी उपेक्षित हो गया है। श्री सत्य सनातन धर्म के इन सिद्धांतों का पालन करने से हमें चार बल प्राप्त होते हैं (1)शरीर बल--शत्रुघ्न (2)मनोबल--- लक्ष्मण (3) आत्मबल-- भरत (4) ब्रह्म बल-- राम आइये हम श्री सत्य सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन कर अपने सुर दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक करें। देश, धर्म, संस्कृति का मान बढायें।

रामचरित मानस का एक दुर्लभ सन्देश

यदि हमारा जीवन गणित के एक प्रश्न के समान है तो उसे हल करने का सूत्र (formula)  क्या है ???

इसका उत्तर है कि हम दशरथ बनें, दशानन नहीं।

हमें दशरथ जी की तरह अपने जीवन की गतिविधियों के सञ्चालन में, जीवनी शक्ति का आधा भाग अन्तःप्रेरणा के लिए (आत्मिक विकास के लिए) लगायें।

1/4 भाग व्यावहारिक जीवन में बुद्धि के विकास में लगायें। और शेष 1/4 भाग  आत्मिक और बौद्धिक विचारों के मार्ग दर्शन में शारीरिक विकास में लगायें।

यदि इस अनुपात में जीवन की गतिविधियों का सञ्चालन नहीं होता तो हम जाने अनजाने दशानन(रावण) के मार्ग पर चलकर अंततः इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का विनाश कर लेते हैं।

अब प्रश्न ये उठा !!!!!!!!

कि जब दशरथ दस इन्द्रियों रूपी रथ में सवार जीवात्मा हैं। और इस जीवात्मा के तीन शरीर स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर ही उनकी सुमित्रा, कैकेयी, कौशल्या आदि रानियाँ हैं। तो उनके चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न हुए। तो क्या साधना मार्ग पर, श्री सत्य सनातन धर्म के मार्ग पर हम भी यदि दशरथ जी के समान चलें , तो क्या हमारे जीवन में भी राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न जी आयेंगे???????

इसका उत्तर है कि हाँ !!!!!!!!

आप के जीवन में भी दशरथ जी की तरह राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न आ सकते हैं।

कैसे ?????

जब आप भी श्री सत्य सनातन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार:---
(1) वर्णाश्रम धर्म का पालन करेंगे !

वर्ण व्यवस्था ! ईश्वरीय व्यवस्था है ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ।

यह मनुष्य की प्रकृति और स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण है। जन्म के आधार
पर ,  जाति के आधार पर नहीं।
भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा है:--
चातुर्वर्ण्य म मया श्रीस्ट्यम गुण कर्म विभागशः ।

इस प्रकार मनुष्य को अपनी प्रकृति, स्वभाव को पहचान कर तदनुकूल कार्य करना चाहिए।
चार आश्रम :-- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ।
मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानी गयी है।
पहले 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम में  गायत्री साधना, यज्ञ, धर्म, दर्शन, गणित आदि विषयों का गुरु सान्निध्य में अध्ययन करते हुए। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक विकास में अग्रसर होना।

गृहस्थ आश्रम:--
25--50 वर्ष, गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर धर्म पूर्वक पारिवारिक उत्तरदायित्वों का पालन करना।
वानप्रस्थ आश्रम:--

गृहस्थ जीवन के दायित्वों से मुक्त होकर अधिक से अधिक समय, अपने ज्ञान, विद्या,बुद्धि, सम्पदा का उपयोग समाज निर्माण में लगाना।
संन्यास आश्रम:--

75 वर्ष के बाद शेष आयु जब शरीर और इन्द्रियां अशक्त होने लगते हैं। तो ईश्वर के जप,ध्यान, पूजन, स्वाध्याय, चिंतन, मनन आदि में व्यतीत करते हुए अगले जन्म की तैयारी करना।

अर्थात उम्र के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्धारण कर उसका पालन करना।
(2)चार पुरुषार्थ:--

ये सुर दुर्लभ मानव जीवन चार पुरुषार्थ के लिए मिला है। सबसे पहले धर्म को जानें और पालन करें। धर्मानुकूल धन भी कमायें ।संयमित रूप से जीवन का आनंद लेने के लिए संगीत, नृत्य आदि मनोरंजन के साधनों का भी उपयोग करें।
उस परमात्मा को भी रसो वै सः अर्थात वह परमात्मा रसमय है यह कहा गया है।
और अंत में इस सुर दुर्लभ मानव जीवन को पाकर मोक्ष के लिए, अपनी मुक्ति के लिए भी प्रयास करना है।
(3)आत्मिक विकास:--
अपने आत्मिक विकास के लिए नियमित रूप से सम्पूर्ण जीवन में साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के सिद्धांतों को अपना कर आत्मिक विकास के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना है।

श्री सत्य सनातन धर्म के इन सिद्धांतों का दशरथ जी की तरह जीवन में पालन करने से चार बलों की प्राप्ति होती है। यह धरती वीरों के लिए है, कायरों केलिए नहीं।

-- वीर भोग्या वसुंधरा

--survival of the fittest.

इस पृथ्वी पर कमजोरों को जीने का अधिकार नहीं। यह प्रकृति की व्यवस्था है। आज हिन्दू समाज श्री सत्य सनातन धर्म के इन सिद्धांतों की उपेक्षा अवहेलना के कारण ही अपनी मातृभूमि में भी उपेक्षित हो गया है।

श्री सत्य सनातन धर्म के इन सिद्धांतों का पालन करने से हमें चार बल प्राप्त होते हैं
(1)शरीर बल--शत्रुघ्न
(2)मनोबल--- लक्ष्मण
(3) आत्मबल-- भरत
(4) ब्रह्म बल-- राम

आइये हम श्री सत्य सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन कर अपने सुर दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक करें। देश, धर्म, संस्कृति का मान बढायें।

याद रखियेगा ..... . संस्कार दिये बिना सुविधायें देना, पतन का कारण है। सुविधाएं अगर आप ने बच्चों को नहीं दिए तो हो सकता है वह थोड़ी देर के लिए रोए। पर संस्कार नहीं दिए तो वे जिंदगी भर रोएंगे। ऊपर जाने पर एक सवाल ये भी पूँछा जायेगा कि अपनी अँगुलियों के नाम बताओ । . जवाब:- अपने हाथ की छोटी उँगली से शुरू करें :- (1)जल (2) पथ्वी (3)आकाश (4)वायू (5) अग्नि . ये वो बातें हैं जो बहुत कम लोगों को मालूम होंगी । 5 जगह हँसना करोड़ो पाप के बराबर है 1. श्मशान में 2. अर्थी के पीछे 3. शौक में 4. मन्दिर में 5. कथा में . सिर्फ 1 बार भजो बहुत लोग इन पापो से बचेंगे ।। . अकेले हो? परमात्मा को याद करो । . परेशान हो? ग्रँथ पढ़ो । . उदास हो? कथाए पढो । . टेन्शन मे हो? भगवत गीता पढो । . फ्री हो? अच्छी चीजों का अध्ययन करो हे परमात्मा हम पर और समस्त प्राणियो पर कृपा करो...... . सूचना क्या आप जानते हैं ? हिन्दू ग्रंथ रामायण, गीता, आदि को सुनने,पढ़ने से कैन्सर नहीं होता है बल्कि कैन्सर अगर हो तो वो भी खत्म हो जाता है। व्रत,उपवास करने से तेज़ बढ़ता है,सर दर्द और बाल गिरने से बचाव होता है । . आरती----के दौरान ताली बजाने से दिल मजबूत होता है । श्रीमद भगवत गीता पुराण और रामायण का अध्ययन करो .....

याद रखियेगा .....
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संस्कार दिये बिना सुविधायें देना, पतन का कारण है।

सुविधाएं अगर आप ने बच्चों को नहीं दिए तो हो सकता है वह थोड़ी देर के लिए रोए।
पर संस्कार नहीं दिए तो वे जिंदगी भर रोएंगे।
ऊपर जाने पर एक सवाल ये भी पूँछा जायेगा कि अपनी अँगुलियों के नाम बताओ ।
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जवाब:-
अपने हाथ की छोटी उँगली से शुरू करें :-
(1)जल
(2) पथ्वी
(3)आकाश
(4)वायू
(5) अग्नि
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ये वो बातें हैं जो बहुत कम लोगों को मालूम होंगी ।
5 जगह हँसना करोड़ो पाप के बराबर है
1. श्मशान में
2. अर्थी के पीछे
3. शौक में
4. मन्दिर में
5. कथा में
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सिर्फ 1 बार भजो बहुत लोग इन पापो से बचेंगे ।।
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अकेले हो?
परमात्मा को याद करो ।
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परेशान हो?
ग्रँथ पढ़ो ।
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कथाए पढो ।
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टेन्शन मे हो?
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.
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हे परमात्मा हम पर और समस्त प्राणियो पर कृपा करो......
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सूचना
क्या आप जानते हैं ?
हिन्दू ग्रंथ रामायण, गीता, आदि को सुनने,पढ़ने से कैन्सर नहीं होता है बल्कि कैन्सर अगर हो तो वो भी खत्म हो जाता है।
व्रत,उपवास करने से तेज़ बढ़ता है,सर दर्द और बाल गिरने से बचाव होता है ।
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आरती----के दौरान ताली बजाने से
दिल मजबूत होता है ।

श्रीमद भगवत गीता पुराण और रामायण का अध्ययन करो .....