Friday, May 25, 2018

शास्त्रानुसार, यज्ञोपवीत क्यों और इसके नियम: . . यज्ञोपवीत द्विजत्व का चिन्ह है। कहा भी है- मातुरग्रेऽधिजननम् द्वितीयम् मौञ्जि बन्धनम्। अर्थात्-पहला जन्म माता के उदर से और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है। आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणम् कृणुते गर्भमन्त:। त रात्रीस्तिस्र उदरे विभत्ति तं जातंद्रष्टुमभि संयन्ति देवा:।। अथर्व 11/3/5/3 अर्थात्-गर्भ में रहकर माता और पिता के संबंध से मनुष्य का पहला जन्म होता है। दूसरा जन्म विद्या रूपी माता और आचार्य रूप पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और विद्याभ्यास द्वारा होता है। ‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में लिखा है कि यज्ञोपवीत के नौ धागों में नौ देवता निवास करते हैं। (1) ओउमकार (2) अग्नि (3) अनन्त (4) चन्द्र (5) पितृ (6) प्रजापति (7) वायु (8) सूर्य (9) सब देवताओं का समूह। वेद मंत्रों से अभिमंत्रित एवं संस्कारपूर्वक कराये यज्ञोपवीत में 9 शक्तियों का निवास होता है। जिस शरीर पर ऐसी समस्त देवों की सम्मिलित प्रतिमा की स्थापना है, उस शरीर रूपी देवालय को परम श्रेय साधना ही समझना चाहिए। ‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में यज्ञोपवीत के संबंध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है- ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कृतम्। कृतो ग्रन्थिस्त्रनेत्रेण गायत्र्याचाभि मन्त्रितम्।। अर्थात्-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन धागे का सूत्र बनाया। विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों काण्डों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसे ब्रह्म गाँठ लगा दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियों समेत बनकर तैयार हुआ। यज्ञोपवीत के लाभों का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है- येनेन्द्राय वृहस्पतिवृर्व्यस्त: पर्यद धाद मृतं नेनत्वा। परिदधाम्यायुष्ये दीर्घायुत्वाय वलायि वर्चसे।। पारस्कर गृह सूत्र 2/2/7 ‘‘जिस प्रकार इन्द्र को वृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और सम्पत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहना जाय।’’ देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तत्रपृषयस्तपसे ये निषेदु:। भीमा जन्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधति परमे व्योमन्।। ऋग्वेद 10/101/4 अर्थात-तपस्वी ऋषि और देवतागणों ने कहा कि यज्ञोपवीत की शक्ति महान है। यह शक्ति शुद्ध चरित्र और कठिन कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देती है। इस यज्ञोपवीत को धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पहुँच जाते हैं। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।। -ब्रह्मोपनिषद् अर्थात- यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है। त्रिरस्यता परमा सन्ति सत्या स्यार्हा देवस्य जनि मान्यग्ने:। अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि: शुक्रो अर्थो रोरुचान:।। -4/1/7 अर्थात- इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्षण है। 1. सत्य व्यवहार की आकांक्षा 2. अग्नि जैसी तेजस्विता 3. दिव्य गुणों से युक्त प्रसन्नता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है। नौ धागों में नौ गुणों के प्रतीक हैं। 1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय 4. तितिक्षा 5. अपरिग्रह 6. संयम 7. आस्तिकता 8. शान्ति 9. पवित्रता। 1. हृदय से प्रेम 2. वाणी में माधुर्य 3. व्यवहार में सरलता 4. नारी मात्र में मातृत्व की भावना 5. कर्म में कला और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति 6. सबके प्रति उदारता और सेवा भावना 7. गुरुजनों का सम्मान एवं अनुशासन 8. सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं सत्संग 9. स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता का स्वभाव। यह भी नौ गुण बताये गये हैं। अभिनव संस्कार पद्धति में श्लोक भी दिये गये हैं। यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कन्धों पर परम पवित्र उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना। अपनी गतिविधियों का सारा ढाँचा इस आदर्शवादिता के अनुरुप ही खड़ा करना। इस उत्तरदायित्व के अनुभव करते रहने की प्रेरणा का यह प्रतीक सत्र धारण किये रहने प्रत्येक हिन्दू का आवश्यक धर्म-कर्तव्य माना गया है। इस लक्ष्य से अवगत कराने के लिए समारोहपूर्वक उपनयन किया जाता है। विधि व्यवस्था बालक जब थोड़ा सदाचार हो जाय और यज्ञोपवीत के आदर्शों को समझने एवं नियमों को पालने योग्य हो जाय तो उसका उपनयन संस्कार कराना चाहिए। साधारणतया 12 से 13 वर्ष की आयु इसके लिए ठीक है। जिनका तब तक न हुआ हो तो वे कभी भी करा सकते हैं। जिन महिलाओं की गोदी में छोटे बच्चे नहीं वे भी उसे धारण कर सकती है। जो पहने उन्हें 1. मल-मूत्र त्यागते समय जनेऊ को कान पर चढ़ाना 2. गायत्री की प्रतिमा यज्ञोपवीत की पूजा प्रतिष्ठा के लिए एक माला (108 बार) गायत्री मंत्र का नित्य जप करना, 3. कण्ठ से बिना बाहर निकाले ही साबुन आदि से उसे धोना, 4. एक भी लड़ टूट जाने पर उसे निकाल कर दूसरा पहनना, 5. घर में जन्म-मरण, सूतक, हो जाने या छ: महीने बीत जाने पर पुराना जनेऊ हटाकर नया पहनना, 6. चाबी आदि कोई वस्तु उसमें न बाँधना-इन नियमों का पालन करना चाहिए। . यज्ञोपवीत संस्कार के लिए शुभ मुहूर्त :> शास्त्र के अनुसार मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृष और मिथुन ये सभी सूर्य मास शुभ माने गए हैं। इनमे से मीन का सौर मास सर्वोत्तम माना गया है। विद्वानों का मत है कि ज्येष्ठ पुत्र का उपनयन सूर्य के वृष राशिस्थ होने पर करना चाहिए (Sun is for Taurus Rashi)। सूर्य के मिथुन राशि(sun of गेमेनिए) में होने पर क्षत्रिय कुमार और वैश्य कुमार का उपनयन करना ठीक रहता है। यज्ञोपवीत संस्कार के लिए शुभ नक्षत्र :> उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य अभिजीत, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा हो तो शुभ माना जाता है। ब्राह्मण कुमार के लिए पुनर्वसु शुभ नहीं माना जाता है। उपनयन संस्कार के लिए शुभ तिथि :> इस संस्कार के लिए शुभ तिथि के रूप मे द्वितीया, तृतीया, पंचमी, दशमी, एकादशी और द्वादशी तथा कृष्णपक्ष द्वितीया, तृतीया और पंचमी तिथि का नाम लिया जाता है। इसके अलावा रिक्ता तिथियां (चतुर्थ, नवम, चतुर्दशी) व प्रतिपदा, सप्तमी, अष्टमी, त्रयोदशी, पूर्णिमा व अमवस्या तिथि भी इस संस्कार हेतु वर्जित है। उपनयन संस्कार के लिए शुभ वार :> यज्ञोपवीत संस्कार के लिए रविवार, सोमवार, बुधवार, बृहस्पति, शुक्रवार को उत्तम और शुभ माना जाता है यज्ञोपवीत संस्कार के लिए शुभ लग्न :> उपनयन मुहुर्त के लिए बलवान लग्न शुभ माना जाता है। जिसके केन्द्र (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम) तथा त्रिकोण (पंचम, नवम) भाव में शुभ ग्रह तथा तृतीय, षष्टम व एकादश में पाप ग्रह स्थित हों तो उपनयन संस्कार के लिए शुभ माना जाता है। लग्नेश, चन्द्रमा, गुरू व शुक्र छठे, आठवें भाव में न हो तथा यदि चन्द्रमा लग्न, स्वराशि या उच्च राशि में हो तो शुभ स्थिति होती है। उपनयन लग्न एवं चन्द्रमा बुध, बृहस्पति या शुक्र नवमांश में होना इस संस्कार हेतु सर्वथा उपयुक्त है। यज्ञोपवीत संस्कार के लिए निषेध (Nishedh): ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि उपनयन संस्कार के लिए जन्म चन्द्र से गोचर में स्थित चतुर्थ, अष्टम, द्वादश वां चन्द्र एवं तृतीय, पंचम एवं सप्तम तारा से बचना चाहिए। चन्द्रमा और तारा की शुद्धि इस संस्कार हेतु बहुत ही जरूरी है।

शास्त्रानुसार, यज्ञोपवीत क्यों और इसके नियम:
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यज्ञोपवीत द्विजत्व का चिन्ह है। कहा भी है-
मातुरग्रेऽधिजननम् द्वितीयम् मौञ्जि बन्धनम्।
अर्थात्-पहला जन्म माता के उदर से और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है।
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणम् कृणुते गर्भमन्त:।
त रात्रीस्तिस्र उदरे विभत्ति तं जातंद्रष्टुमभि संयन्ति देवा:।।
अथर्व 11/3/5/3
अर्थात्-गर्भ में रहकर माता और पिता के संबंध से मनुष्य का पहला जन्म होता है। दूसरा जन्म विद्या रूपी माता और आचार्य रूप पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और विद्याभ्यास द्वारा होता है।
‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में लिखा है कि यज्ञोपवीत के नौ धागों में नौ देवता निवास करते हैं।
(1) ओउमकार
(2) अग्नि
(3) अनन्त
(4) चन्द्र
(5) पितृ
(6) प्रजापति
(7) वायु
(8) सूर्य
(9) सब देवताओं का समूह।
वेद मंत्रों से अभिमंत्रित एवं संस्कारपूर्वक कराये यज्ञोपवीत में 9 शक्तियों का निवास होता है। जिस शरीर पर ऐसी समस्त देवों की सम्मिलित प्रतिमा की स्थापना है, उस शरीर रूपी देवालय को परम श्रेय साधना ही समझना चाहिए।
‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में यज्ञोपवीत के संबंध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है-
ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कृतम्।
कृतो ग्रन्थिस्त्रनेत्रेण गायत्र्याचाभि मन्त्रितम्।।
अर्थात्-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन धागे का सूत्र बनाया। विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों काण्डों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसे ब्रह्म गाँठ लगा दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियों समेत बनकर तैयार हुआ।
यज्ञोपवीत के लाभों का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है-
येनेन्द्राय वृहस्पतिवृर्व्यस्त: पर्यद धाद मृतं नेनत्वा।
परिदधाम्यायुष्ये दीर्घायुत्वाय वलायि वर्चसे।।
पारस्कर गृह सूत्र 2/2/7
‘‘जिस प्रकार इन्द्र को वृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और सम्पत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहना जाय।’’
देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तत्रपृषयस्तपसे ये निषेदु:।
भीमा जन्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधति परमे व्योमन्।।
ऋग्वेद 10/101/4
अर्थात-तपस्वी ऋषि और देवतागणों ने कहा कि यज्ञोपवीत की शक्ति महान है। यह शक्ति शुद्ध चरित्र और कठिन कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देती है। इस यज्ञोपवीत को धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पहुँच जाते हैं।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।।
-ब्रह्मोपनिषद्
अर्थात- यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है।
त्रिरस्यता परमा सन्ति सत्या स्यार्हा देवस्य जनि मान्यग्ने:।
अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि: शुक्रो अर्थो रोरुचान:।।
-4/1/7
अर्थात- इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्षण है। 1. सत्य व्यवहार की आकांक्षा
2. अग्नि जैसी तेजस्विता
3. दिव्य गुणों से युक्त प्रसन्नता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है।
नौ धागों में नौ गुणों के प्रतीक हैं।
1. अहिंसा
2. सत्य
3. अस्तेय
4. तितिक्षा
5. अपरिग्रह
6. संयम
7. आस्तिकता
8. शान्ति
9. पवित्रता।
1. हृदय से प्रेम
2. वाणी में माधुर्य
3. व्यवहार में सरलता
4. नारी मात्र में मातृत्व की भावना
5. कर्म में कला और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति
6. सबके प्रति उदारता और सेवा भावना
7. गुरुजनों का सम्मान एवं अनुशासन
8. सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं सत्संग
9. स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता का स्वभाव।
यह भी नौ गुण बताये गये हैं। अभिनव संस्कार पद्धति में श्लोक भी दिये गये हैं।
यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कन्धों पर परम पवित्र उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना। अपनी गतिविधियों का सारा ढाँचा इस आदर्शवादिता के अनुरुप ही खड़ा करना। इस उत्तरदायित्व के अनुभव करते रहने की प्रेरणा का यह प्रतीक सत्र धारण किये रहने प्रत्येक हिन्दू का आवश्यक धर्म-कर्तव्य माना गया है। इस लक्ष्य से अवगत कराने के लिए समारोहपूर्वक उपनयन किया जाता है।
विधि व्यवस्था
बालक जब थोड़ा सदाचार हो जाय और यज्ञोपवीत के आदर्शों को समझने एवं नियमों को पालने योग्य हो जाय तो उसका उपनयन संस्कार कराना चाहिए। साधारणतया 12 से 13 वर्ष की आयु इसके लिए ठीक है। जिनका तब तक न हुआ हो तो वे कभी भी करा सकते हैं। जिन महिलाओं की गोदी में छोटे बच्चे नहीं वे भी उसे धारण कर सकती है। जो पहने उन्हें
1. मल-मूत्र त्यागते समय जनेऊ को कान पर चढ़ाना
2. गायत्री की प्रतिमा यज्ञोपवीत की पूजा प्रतिष्ठा के लिए एक माला (108 बार) गायत्री मंत्र का नित्य जप करना,
3. कण्ठ से बिना बाहर निकाले ही साबुन आदि से उसे धोना,
4. एक भी लड़ टूट जाने पर उसे निकाल कर दूसरा पहनना,
5. घर में जन्म-मरण, सूतक, हो जाने या छ: महीने बीत जाने पर पुराना जनेऊ हटाकर नया पहनना,
6. चाबी आदि कोई वस्तु उसमें न बाँधना-इन नियमों का पालन करना चाहिए।
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यज्ञोपवीत संस्कार के लिए शुभ मुहूर्त :>

शास्त्र के अनुसार मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृष और मिथुन ये सभी सूर्य मास शुभ माने गए हैं। इनमे से मीन का सौर मास सर्वोत्तम माना गया है। विद्वानों का मत है कि ज्येष्ठ पुत्र का उपनयन सूर्य के वृष राशिस्थ होने पर करना चाहिए (Sun is for Taurus Rashi)। सूर्य के मिथुन राशि(sun of गेमेनिए) में होने पर क्षत्रिय कुमार और वैश्य कुमार का उपनयन करना ठीक रहता है।

यज्ञोपवीत संस्कार के लिए शुभ नक्षत्र :>

उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य अभिजीत, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा हो तो शुभ माना जाता है। ब्राह्मण कुमार के लिए पुनर्वसु शुभ नहीं माना जाता है।

उपनयन संस्कार के लिए शुभ तिथि :>

इस संस्कार के लिए शुभ तिथि के रूप मे द्वितीया, तृतीया, पंचमी, दशमी, एकादशी और द्वादशी तथा कृष्णपक्ष द्वितीया, तृतीया और पंचमी तिथि का नाम लिया जाता है। इसके अलावा रिक्ता तिथियां (चतुर्थ, नवम, चतुर्दशी) व प्रतिपदा, सप्तमी, अष्टमी, त्रयोदशी, पूर्णिमा व अमवस्या तिथि भी इस संस्कार हेतु वर्जित है।

उपनयन संस्कार के लिए शुभ वार :>

यज्ञोपवीत संस्कार के लिए रविवार, सोमवार, बुधवार, बृहस्पति, शुक्रवार को उत्तम और शुभ माना जाता है

यज्ञोपवीत संस्कार के लिए शुभ लग्न :>

उपनयन मुहुर्त

के लिए बलवान लग्न शुभ माना जाता है। जिसके केन्द्र (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम) तथा त्रिकोण (पंचम, नवम) भाव में शुभ ग्रह तथा तृतीय, षष्टम व एकादश में पाप ग्रह स्थित हों तो उपनयन संस्कार के लिए शुभ माना जाता है। लग्नेश, चन्द्रमा, गुरू व शुक्र छठे, आठवें भाव में न हो तथा यदि चन्द्रमा लग्न, स्वराशि या उच्च राशि में हो तो शुभ स्थिति होती है। उपनयन लग्न एवं
चन्द्रमा बुध, बृहस्पति या शुक्र नवमांश में होना इस संस्कार हेतु सर्वथा उपयुक्त है।

यज्ञोपवीत संस्कार के लिए निषेध (Nishedh):
ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि उपनयन संस्कार के लिए जन्म चन्द्र से गोचर में स्थित चतुर्थ, अष्टम, द्वादश वां चन्द्र एवं तृतीय, पंचम एवं सप्तम तारा से बचना चाहिए। चन्द्रमा और तारा की शुद्धि इस संस्कार हेतु बहुत ही जरूरी है।

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