Friday, November 2, 2018

भगवान गणेश की प्रिय दुर्वा की महिमा

भगवान गणेश की
प्रिय दुर्वा की महिमा
.
महालक्ष्मी की छोटी
बहन है दुर्वा !!
.
पौराणिक संदर्भों से ज्ञान होता
है कि क्षीर सागर से उत्पन्न होने
के कारण भगवान विष्णु को यह
अत्यंत प्रिय रही और क्षीर सागर
से जन्म लेने के कारण लक्ष्मी
की छोटी बहन कहलाई।

विष्च्यवादि सर्व देवानां,
दुर्वे त्वं प्रीतिदायदा।
क्षीरसागर सम्भूते,
वंशवृद्धिकारी भव।।

दुर्वा यानी दूब जैसा कोई अन्य
पदार्थ,इस धरा पर हो ही नहीं
सकता,जो देव मनुष्य व पशु
तीनों को ही प्रिय है।

नन्ही दूब के आचमन से देवता,
दूब आच्‍छादित मैदानों पर
भ्रमण से मनुष्य और भोजन
के रूप में पशु इसको पाकर
प्रसन्न रहते हैं।

खेल के मैदान,मंदिर,बाग-बगीचे
में उगी नन्ही दूब का मखमली
हरा गलीचा सबको अपनी ओर
आकर्षित करता है।

सबके पांव से रगड़ खाती,
विपरी‍त परिस्थितियों में भी
जीवित रहती,देवताओं को
प्रिय व मानव के लिए
मंगलकारी व आरोग्य
प्रदायक है।

हरी कोमल दूब का महत्व :

अनेक युगों से हरी कोमल दूब
का मैदान सर्वप्रिय और उद्यानों
का आवश्यक अंग रहा है।

अथर्ववेद तथा कौटिल्य
अर्थशास्त्र में हरी व कोमल
दूब का संदर्भ मिलता है।

पुराणों में भी नंदन वन
का वर्णन मिलता है।

वाटिकाओं में समतल व ऊंची-
नीची घुमावदार भूमि पर कोमल
हरी दूब लगी हुई है,जिस पर
कुलांचे मारते हिरण घास चर
रहे हैं और गाय बड़े चाव से
घास खाकर जुगाली कर रही है।

सम्राट विक्रमादित्य और
अशोक के काल में भी हरित
घास मैदानों की बहुलता थी।

मुगलकाल से पूर्व व
पश्चात उद्यान कला
अत्यंत वि‍कसित थी।

हरे घास के मैदानों पर विभिन्न
प्रकार के घुमावदार बेलबूटों
युक्त कटाव के उभार उपवनों
शोभा बढ़ाते थे।

कश्मीर,मैसूर के वृंदावन
गार्डन के ‍हरित घास के
उपवन,हैदराबाद में फिल्म
सिटी के बगीचों की हरित
आभा की झलक से मन
पुलकित हो जाता है।

पौराणिक संदर्भों से ज्ञान होता
है कि क्षीर सागर से उत्पन्न होने
के कारण भगवान विष्णु को यह
अत्यंत प्रिय रही और क्षीर सागर
से जन्म लेने के कारण लक्ष्मी
की छोटी बहन कहलाई।

विष्च्यवादि सर्व देवानां,
दुर्वे त्वं प्रीतिदायदा।
क्षीरसागर सम्भूते,
वंशवृद्धिकारी भव।।

गौरीपूजन,गणेश पूजन में दुर्वा
दल से आचमन अ‍त्यंत शुभ
माना गया है।

जहां रत्नभूषित,झिलमिल
करती इंद्रधनुषी छटा बिखेरे
लक्ष्मी रहती है वहीं हरित वस्त्रों
मे लिपटी सुकुमार कन्या के
अक्षय रूप से कौन आकर्षित
न होगा ?

बलवर्धक दुर्वा कालनेमि
राक्षस का प्राकृतिक
भोजन थी।
.
.
इसके सेवन से वह अति
बलशाली हो गया था।

महर्षि दुर्वासा को भी
दुर्वा रस अत्यंत प्रिय था।

तुलसीदास ने इसे अन्य
मांगलिक पदार्थों के
समकक्ष माना है।

दधि दुर्वा रोचन फल-फूला।
नव तुलसीदल मंगल मूला।।

वा‍ल्मीकि ऋषि ने भी भगवान
राम के वर्ण की तुलना दुर्वा से
कर इसको कितना सम्मान
दिया है-

रामदुर्वा दल श्यामे,
पद्याक्षं पीतवाससा।

यह पौधा जमीन पर रेंगता,
चलने में बाधा नहीं पहुंचाता,
विपरीत परिस्थितियों में भी
जीवित रहता हुआ विनम्रता
व दृढ़ता का पाठ पढ़ाता है।

प्रखर सूर्य किरणों में यह ऊपर
से सूख जाती है लेकिन मूल में
प्राण रहते हैं और जरा-सी जल

की बूंदों से पुन: हरी हो जाती है।

कहा जाता है कि इसकी जड़ें
पाताल लोक तक जाती हैं और
अमृत खींचती हैं।

विनम्रता,दृढ़ता,अमरत्व,सर्व
मंगलकारी होने के कारण ही
प्रत्येक युग में नन्हीं दूब के
विशाल गुणों से कोई-न-कोई
संत अवश्य प्रभावित रहा है,
तब ही गुरुनानक ने इसके
जीवन का अनुसरण करने
की प्रेरणा दी है-

नानक नन्हों हो रहो,
जैसे नन्हीं दूब।
और घास जल जाएगी,
दूब खूब की खूब।

महाराणा प्रताप के दुर्दिनों
में भी घास उनके परिवार
का सहारा बनी।

जिस प्रकार यह स्वयं बढ़ती है
उसी प्रकार यह वंश वृद्धि की
भी संकेतक है।

आज भी राजस्थान में अनेक
परिवारों में पुत्र जन्म की सूचना
दूर-देश के संबंधियों नाना,दादा,
मामा को भेजनी होती है तो
संदेशवाहक कुछ न कहकर
केवल दुर्वा दल के ही दर्शन
कराते हैं।

इसका अर्थ यही है कि
पुत्र जन्म हुआ है।

इस कृत्य को
'हरी दिखाना' कहते हैं।

अगर डाक द्वारा सूचना
भेजनी हो तो लिफाफे में
दो-तीन तिनके दूब के डाल
दिए जाते हैं,जो कि शुभ सूचना
के प्रतीक होते हैं।

विवाह में वरमाला में भी
दुर्वा दल का उपयोग शुभ
माना जाता है।

आजकल इसका उपयोग
नहीं किया जाता है।

नटखट जड़ोंवाली घास :

दूब का पौधा एक बार लगाने
के बाद उस जगह से नष्ट करना
मुश्किल है।

यह नन्ही नटखट अपनी जड़ें
(गांठें)जमीन में रोपती पसरती
ही जाती है।

विश्व के अलग-अलग देशों
में इसकी अनेक प्रजातियां
उपलब्‍ध हैं।

भारत में प्राय: तीन वर्णों
की दूब दिखाई देती है-
--श्याम हरित,हर‍ित व श्वेत।

श्याम हरित दूब दक्षिण
भारत में दिखाई देती है।

हर‍ित उत्तरी भारत व
राजस्थान,गुजरात में
दिखाई देती है।

मरुप्रदेश,जोधपुर की
हरित बारीक,कोमल
दुर्वा विश्वप्रसिद्ध है।

संस्कृत भाषा में यह अनेक
पर्वों (गांठों) के कारण शत
पर्वा, स्वाभाविक तरीके से
उगने के कारण (रुहा),प्रसार
का अंत नहीं होने के कारण
अनम्ता के नाम से भी जानी
जाती है।

रासायनिक तौर पर दुर्वा रस
में क्लोरोफिल के साथ प्रोटीन,
कार्बोहाइड्रेट व आंशिक रूप से
अनेक लवण भी विद्यमान रहते हैं।

इसमें अनेक आरोग्यदायी व
रोगहर गुण हैं लेकिन इनका
उपयोग कम होता जा रहा है।

त्रिदोष नाशक है दूब घास !!

शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा
जो दूब को नहीं जानता होगा।

हाँ यह अलग बात है कि हर
क्षेत्रों में तथा भाषाओँ में यह
अलग अलग नामों से जाना
जाता है।

हिंदी में इसे दूब,दुबडा,
संस्कृत में दुर्वा,सहस्त्रवीर्य,
अनंत,भार्गवी,शतपर्वा,
शतवल्ली,मराठी में पाढरी
दूर्वा,काली दूर्वा,गुजराती में
धोलाध्रो,नीलाध्रो कहा जाता है।

अंग्रेजी में कोचग्रास,क्रिपिंग
साइनोडन,बंगाली में नील
दुर्वा,सादा दुर्वा आदि नामो
से जाना जाता है।

इसके आध्यात्मिक महत्वानुसार
प्रत्येक पूजा में दूब को अनिवार्य
रूप से प्रयोग में लाया जाता है।

इसके औषधीय गुणों के
अनुसार दूब त्रिदोष को
हरने वाली एक ऐसी औषधि
है जो वात कफ पित्त के समस्त
विकारों को नष्ट करते हुए वात-
कफ और पित्त को सम करती है।

दूब सेवन के साथ यदि कपाल
भाति की क्रिया का नियमित
यौगिक अभ्यास किया जाये
तो शरीर के भीतर के त्रिदोष
को नियंत्रित कर देता है।

यह दाह शामक,रक्तदोष,
मूर्छा,अतिसार,अर्श,रक्त
पित्त,प्रदर,गर्भस्राव,गर्भपात,
यौन रोगों,मूत्रकृच्छ इत्यादि में
विशेष लाभकारी है।

यह कान्तिवर्धक,रक्त स्तंभक,
उदर रोग,पीलिया इत्यादि में
अपना चमत्कारी प्रभाव
दिखाता है।

श्वेत दूर्वा विशेषतः वमन,कफ,
पित्त,दाह,आमातिसार,रक्त
पित्त,एवं कास आदि विकारों
में विशेष रूप से प्रयोजनीय है।

सेवन की दृष्टि से दूब की जड़
का 2 चम्मच पेस्ट एक कप
पानी में मिलाकर पीना चाहिए।

यह घास एक बार लगा दी तो
ज़्यादा देखभाल नहीं मांगती
और कठिन से कठिन परिस्थिति
में भी आराम से बढती है।

इसमें कीड़े भी नहीं लगते ..
इसलिए लॉन में कोई अन्य
घास न लगा कर दुर्वा ही
लगाना चाहिए।

इस पर नंगे पैर चलने से नेत्र
ज्योति बढती है और अनेक
विकार शांत हो जाते है।

यह शीतल और पित्त को
शांत करने वाली है।

दूब के रस को हरा रक्त
कहा जाता है।
इसे पीने से एनीमिया
ठीक हो जाता है।

नकसीर में इसका रस नाक
में डालने से लाभ होता है।

दूब के काढ़े से कुल्ले करने
से मूंह के छाले मिट जाते है।

दूब का रस पीने से पित्त जन्य
वमन(उल्टी)ठीक हो जाता है।

दूब का रस दस्त में
लाभकारी है।

यह रक्त स्त्राव,गर्भपात को
रोकता है और गर्भाशय और
गर्भ को शक्ति प्रदान करता है।

कुँए वाली दूब पीसकर मिश्री
के साथ लेने से पथरी में लाभ
होता है।

इसे पीस कर दही में मिलाकर
लेने से बवासीर में लाभ होता
है।

दूब की जड़ का काढा वेदना
नाशक और मूत्रल होता है।

दूब के रस को तेल में पका कर
लगाने से दाद,खुजली और व्रण
मिटते है।

दूब के रस में अतीस के चूर्ण को
मिलाकर दिन में २-३ बार चटाने
से मलेरिया में लाभ होता है।

दूब के रस में बारीक पिसा
नाग केशर और छोटी इलायची
मिलाकर सूर्योदय के पहले छोटे
बच्चों को नस्य दिलाने से वे
तंदुरुस्त होते है,बैठा हुआ तालू
ऊपर चढ़ जाता है।

जयति पुण्य सनातन संस्कृति
जयति पुण्य भूमि भारत

सदा सर्वदा सुमंगल
वंदेमातरम
ॐ गं गणपतये नमः
जय भवानी
जय श्री राम🙏

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